※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 8 जनवरी 2013

शीघ्र कल्याण कैसे हो ?-8-


आज की शुभ तिथि – पंचांग
पौष कृष्ण ११, मंगलवार, वि० स० २०६९



सांयकाल की संध्या का भी सूर्य के रहते करना उत्तम, अस्त हो जाने पर मध्यम और नक्षत्रो के प्रगट हो जाने पर करना कनिष्ठ माना जाता है|

उतमा सूर्यसहिता मध्यमा लुप्तभास्करा |
कनिष्ठ तारकोपेता सांय संध्या स्मरता ||

क्योंकि जिस प्रकार महापुरुषों के आने पर समय पर किया गया सत्कार उत्तम माना गया है, उसी प्रकार उनके विदा होने के समय भी ठीक समय पर किया गया सत्कार ही सर्वोत्तम माना जाता है | जैसे कोई श्रेष्ठ पुरुष हमारे हित का कार्य सम्पादन करके जब विदा होते हैं तो उस समय बहुत-से भाई उनका आदर करते हुए स्टेशन पर उनके साथ जाते है  और बड़े सत्कार के साथ उन्हें विदा करते हैं और दूसरे बंधुगण उनके सत्कारार्थ कुछ देरी करके स्टेशन पर जाते हैं जिससे उन्हें दर्शन नहीं हो पाते | इस कारण वे उन्हें पत्रद्वारा अपनी श्रद्धा और प्रेम का परिचय देते हैं | तीसरे भाई, यह सुनकर की महात्मा जी विदा हो गये, स्टेशन पर भी नहीं जाते और न जाने का कारण पत्र द्वारा जनाते हुए अपना प्रेम प्रगट करते है | इन तीनो श्रेणियों में प्रथम का आदर-प्रेम उत्तम, द्वितीय का मध्यम और तृतीय का कनिष्ठ माना जाता है |

मार्जन, आचमन और प्राणायामादि की विधि को समझकर ही सारी क्रियाएँ प्रमाद और उपेक्षा को छोड़कर आदरपूर्वक करनी चाहिये, प्रत्येक मन्त्र के पूर्व जो विनियोग छोड़ा जाता है  उसमें बतलाये हुए ऋषि, छन्द, देवता और विषय को समझते हुए मन्त्र का प्रेमपूर्वक शुद्धता और स्पष्टता से उच्चारण करना चाहिये | उस मन्त्र या श्लोक के प्रयोजन को भी समझ लेने की आवश्यकता है | जैसे –

ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोअपी वा |
य: स्मरेत पुण्डरीकाक्षं स बाहान्तर : शुचि: ||

इस श्लोक को पढ़कर हम बाहर-भीतर की पवित्रता के लिए शरीर का मार्जन करते हैं | यह विचारने का विषय है कि मन्त्र के उच्चारण से शरीर की पवित्रता होती है या जल के मार्जन से  | गौर करने पर यह मालूम होगा की मुख्य बात इन दोनों से भिन्न ही है | वह यह है कि ‘पुण्डरीकाक्ष’ भगवान का स्मरण करने पर मनुष्य बाहर-भीतर से पवित्र होता है, क्योंकि श्लोक का आशय यही है |यदि यह पूछा जाये कि फिर श्लोक पढ़ने और मार्जन करने की आवश्यकता ही क्या है, तो इसका उत्तर यह है कि श्लोक-पाठ का उदेश्य तो परमात्म-स्मृति के महत्व को बतलाना है और मार्जन की पवित्रता की ओर लक्ष्य करवाना है | इसी प्रकार सब मन्त्रों,श्लोको और विनियोगों के तात्पर्य को समझ-समझ कर संध्या करनी चाहिये |

श्री मन्न नारायण नारायण नारायण, श्री मन्न नारायण नारायण नारायण.....

शेष अगले ब्लॉग में.......
जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर