※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 4 जनवरी 2013

शीघ्र कल्याण कैसे हो ? -४

आज की शुभ तिथि – पंचांग

पौष कृष्ण ७, शुक्रवार , वि० स० २०६९





लोग एकान्त में ध्यान के लिए बैठते हैं तो झट से ऊँघने लगते हैं | इसी बीच में यदि कोई श्रद्धेय पुरुष संयोगवश वहां आ पहुंचे तो उठ बैठते हैं | यही तो पाखण्ड है | भगवान इससे बड़े नाराज होते है | वे समझते है कि ये भक्ति के नाम पर मुझे ठगते हैं | रिझाना तो ये चाहते है लोगों को और नाम लेते है एकान्त में साधन का ! भला, ऐसे स्वाँग की आवश्यकता ही क्या है ? साधकों को भक्ति रुपी अमूल्य धन का संग्रह गुप्त रूपसे करना चाहिये | निष्काम और गुप्त भजन ही शीघ्रातिशीघ्र फलदायक होता है | स्त्री-पुत्रादि की प्राप्ति के लिए भजन को बेच देना भारी भूल है | यद्यपि इसमें पतन नही होता, पर फल अति अल्प ही होता है |
 
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुक्रृतिनोऽर्जुन | 
आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ ||
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते |
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ||

‘हे भरतवंशियो में श्रेष्ठ अर्जुन ! उत्तम कर्मवाले अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी अर्थात् निष्कामी ऐसे चार प्रकार के भक्तजन मुझको भजते हैं, उनमें भी नित्य मुझमें एकीभाव से स्थित हुआ अनन्य प्रेम-भक्ति वाला ज्ञानी अति उत्तम है, क्योंकि मुझको तत्व से जानने वाले ज्ञानी भक्त को मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझको अत्यंत प्रिय है |’ (गीता ७| १६-१७)


निष्काम भक्त को भगवान ने अपना ही स्वरुप माना है | ‘ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम् वही सबसे श्रेष्ठ है | अत: गायत्री-मन्त्र के जप की तरह किसी भी मन्त्र अथवा नाम के जप से यदि हमें थोड़े ही समय में अधिक लाभ प्राप्त करना अभिष्ट हो तो उपर्युक्त शैली से उसमें सुधार कर लेना चाहिये | साथ ही मन्त्र का जप अर्थ-सहित , आदर और प्रेमपूर्वक किया जाना चाहिये |यदि अर्थ समझ में न आता हो तो भगवान के ध्यान सहित जप करना चाहिये | चारो वेदों में गायत्री के समान किसी भी मन्त्र का महत्व नहीं बतलाया गया, पर लोगो को उससे इतना लाभ नहीं होता, इसका कारण यह है कि वे अर्थ सहित, प्रेम और आदर से उसे जपते नहीं | मनु जी ने स्पष्ट कहा है कि ‘जो व्यक्ति गायत्री की दस मालाये नित्य जपता है वह केवल तीन वर्षो में भारी-से-भारी पाप से छूट जाता है |’ पर आजकल जापक का मन तो कहीं और रहता है  और मणियाँ  कहीं फिरती रहती हैं-


कर में तो माला फिरे, जीभ फिरे मुख मायँ |
                               मनुवा तो चहुँ दिसि फिरे , यह तो सुमिरण नायँ ||

 संख्या तो पूरी करनी ही नहीं है | साधक को तो भगवान को रिझाना है | फिर प्रेम और आदर में कमी क्यों करनी चाहिये | उपर्युक्त विशेषणों को लक्ष्य में रख कर जप करने से एक माला से जो लाभ होगा, वह एक हज़ार से भी न हुआ और न होगा | आप आजही से इस प्रकार करके देखिये, थोड़े-से समय में कितना अपरिमित लाभ होता है | डेढ़ वर्ष में आपने जो मालाएँ जपीं, वह एक दिन से भी कम रहेंगी | इतना होने पर भी यदि असावधानी बनी रही तो विश्वास की कमी ही समझनी चाहिये |..........शेष अगले ब्लॉग में

श्री मन्न नारायण नारायण नारायण, श्री मन्न नारायण नारायण नारायण.....




जयदयाल गोयन्दका, तत्व चिंतामणि, कोड ६८३, गीताप्रेस गोरखपुर