※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 17 फ़रवरी 2013

स्वार्थ रहित व्यवहार -1-


|| श्री हरी ||

आज की शुभ तिथि – पंचांग

माघ शुक्ल, सप्तमी, रविवार, वि० स० २०६९
                           

माताओं से मेरी एक प्रार्थना है | आप यहाँ तीर्थ में आई है और आपका उद्देश्य आत्मा का कल्याण के लिए ही होगा | यहाँ केवल धर्म, अर्थ, मोक्ष इन तीनो की ही उपलब्धि होती है | वे सात्विक हैं जो आत्मा के कल्याण के लिए आते है | वे राजस है जो धर्म की द्रष्टी से आते है |

तीर्थ तीन अर्थवाला है | कोई स्नान करके लाभ उठाते है और कोई वहाँ मल-मूत्र त्यागकर पाप कमाते है | तीर्थो में जैसे थोडा-सा भी पुण्य महान होता है, वैसे ही पाप का भी महान फल होता है | कई माताएँ यहाँ नियम लेती है, ये सब बाते अच्छी है | पर यहाँ आकर एकका ही त्याग करे. जिस एकके करने से ही बेडा पार हो जाये और एक ही व्रत धारण करे, जिसके करने से बेडा पार हो जाए | वर्तमान में जिस मार्गमें चल रही है, वह तो नरक का मार्ग है, प्रवृति मार्ग है | जनक प्रवृति मार्ग में होते हुए भी  निव्रतीमार्गी है | जो भी कार्य स्वार्थरहित किया जाता है, वही निवृति है | भगवान कहते है

जिस पुरुष के अन्तकरण में ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि संसारिक पदार्थों में और कर्मो में लिपायमान नही होती, वह पुरुष इन सब लोको को मारकर भी वास्तव में न तो मारता है और न पाप से बधँता है | (गीता १८|१७)

हे महाबाहो ! गुणविभाग और कर्मविभाग के तत्व को जाननेवाला ज्ञानयोगी सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बरत रहे है, ऐसा समझकर उनमे आसक्त नहीं होता | (गीता ३|२८) |.....शेष अगले ब्लॉग में

    श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, साधन की आवश्यकता पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!