※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 6 फ़रवरी 2013

शरणागति-1




|| श्री हरी ||
आज की शुभ तिथि – पंचांग
माघ  कृष्ण, एकादशी, बुधवार, वि० स० २०६९


तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत |
                      तत्प्रसदात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतं || (गीता १८ |६२)
मनुष्य-जीवन का चरम लक्ष्य आत्यन्तिक आनंद की प्राप्ति है, आत्यन्तिक आनंद परमात्मा में है अतएव परमात्मा की प्राप्ति ही मनुष्य-जीवन का एकमात्र उद्देश्य है | इस उद्देश्य की सिद्धि के लिए शास्त्रकारों और महात्माओं ने अधिकारी के अनुसार अनेक उपाय और साधन बतलाये हैं, परन्तु विचार करनेपर उन समस्त साधनों में परमात्मा की शरणागति के समान सरल, सुगम, सुखसाध्य साधन अन्य कोई-सा भी नहीं प्रतीत होता | इसीलिए प्रायः सभी शास्त्रों में इसकी प्रशंसा की गयी है | श्रीमद्भगवद्गीता में तो उपदेश का आरम्भ और पर्यवसान दोनों ही शरणागति में होते हैं | पहले अर्जुन ‘शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’ (गीता २ | ७) ‘मैं आपका शिष्य हूँ, शरणागत हूँ, मुझे यथार्थ उपदेश दीजिये, ऐसा कहता है, तब भगवान् उपदेश का आरम्भ करते हैं और अंत में उपदेश का उपसंहार करते हुए कहते हैं—
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम् व्रज |
                     अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ||  (गीता १८|६६)
‘सम्पूर्ण धर्मों को अर्थात् सम्पूर्ण कर्मों के आश्रय को त्यागकर केवल मुझ एक सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्मा की ही अनन्य शरण को प्राप्त हो | मैं तुझे सम्पूर्ण पापों से मुक्त कर दूँगा, तू चिंता न कर |’
इससे पहले भी भगवान् ने शरणागति को जितना महत्त्व दिया है उतना अन्य किसी भी साधन को नहीं दिया | जाति या आचरण से कोई कैसा भी नीच या पापी क्यों न हो, भगवान् की शरण मात्र से ही वह अनायास परमगति को प्राप्त हो जाता है |
भगवान ने कहा है—
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि यान्ति स्युः पापयोनयः |
                  स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ||  (गीता ९|३२)
‘हे अर्जुन ! स्त्री, वैश्य, शूद्रादि और पापयोनिवाले भी जो कोई होवें, वे भी मेरे शरण होकर तो परमगति को ही प्राप्त होते हैं |’
श्रुति कहती है—
एतद्ध्येवाक्षरं ब्रह्म एतद्ध्येवाक्षरं परम् |
एतद्ध्येवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत् ||
एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम् |
एतदालम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोकेमहीयते ||
(कठ० १ | २ | १६-१७)
यह अक्षर ही ब्रह्मस्वरूप है, यह अक्षर ही पररूप है, इस अक्षर को ही जानकर जो पुरुष जैसी इच्छा करता है, उसको वह ही प्राप्त होता है | इस अक्षर का आश्रय (शरण) श्रेष्ठ है | यह आश्रय सर्वोत्कृष्ट है, इस आश्रय को जानकर (वह) ब्रह्मलोक में पूजित होता है |
   महर्षि पतंजलि अन्यान्य सब उपायों से इसी को सुगम बतलाते हुए कहते हैं—
ईश्वरप्रणिधानाद्वा | (योगदर्शन १|२३)
   ईश्वर की शरणागति से समाधि की प्राप्ति होती है | आगे चलकर पतंजलि इसका फल बतलाते हैं—
ततः प्रत्यक्चेतनाधिगमोप्यन्तरायाभावश्च | (योगदर्शन १|२९)
उस ईश्वरप्रणिधान से परमात्मा की प्राप्ति और (साधन में आनेवाले) सम्पूर्ण विघ्नों का भी अत्यंत अभाव हो जाता है |
भगवान् श्रीराम ने घोषणा की है—                         
सकृदेव प्रपन्नाय तवास्मीति च याचते |
 अभयं सर्वभूतेभ्यो ददाम्येतद्व्रतं मम् ||
(वा० रा० ६|१८|३३)
यह तो प्रमाणों का केवल दिग्दर्शनमात्र है | शास्त्रों में शरणागति की महिमा के असंख्य प्रमाण वर्तमान हैं | परन्तु विचारणीय विषय तो यह है कि शरणागति वास्तव में किसे कहते हैं | केवल मुख से कह देना कि ‘हे भगवान् ! मैं आपके शरण हूँ’ शरणागति का स्वरुप नहीं है | साधारणतया शरणागति का अर्थ किया जाता है मन, वाणी और शरीर को सर्वतोभाव से भगवान् के अर्पण कर देना, परन्तु यह अर्पण भी केवल ‘श्रीकृष्णार्पणमस्तु’ कह देने मात्र से सिद्ध नहीं हो सकता | यदि इसी में अर्पण की सिद्धि होती तो अबतक न मालूम कितने भगवान् के शरणागत भक्त हो गए होते, इसलिए अब यह समझना चाहिए कि अर्पण किसे कहते हैं |
   शरण, आश्रय, अनन्यभक्ति, अव्यभिचारिणी भक्ति, अवलम्बन, निर्भर और आत्मसमर्पण आदि शब्द प्रायः एक ही अर्थ के बोधक हैं |
   एक परमात्मा के सिवा किसी का किसी भी काल में कुछ भी सहारा न समझकर लज्जा, भय, मान, बड़ाई और आसक्ति को त्यागकर , शरीर और संसार में अहंता-ममता से रहित होकर, केवल एक परमात्मा को ही अपना परम आश्रय, परम गति और सर्वस्व समझना तथा अनन्य भाव से, अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेमपूर्वक निरंतर भगवान् के नाम, गुण, प्रभाव और स्वरुप का चिंतन करते रहना और भगवान् का भजन-स्मरण करते हुए ही उनके आज्ञानुसार समस्त कर्तव्य-कर्मोंका निःस्वार्थभाव से केवल भगवान् के लिए ही आचरण करते रहना, यही ‘सब प्रकार से परमात्मा के अनन्यशरण’ होना है |
   इस शरणागति में प्रधानतः चार बातें साधक के लिए समझने की हैं—
(१)       सब कुछ परमात्मा का समझकर उसके अर्पण करना |
(२)       उसके प्रत्येक विधान में परम सन्तुष्ट रहना |
(३)       उसके आज्ञानुसार उसी के लिए समस्त कर्तव्य-कर्म करना |
(४)       नित्य-निरंतर स्वाभाविक ही उसका एकतार स्मरण रखना |

इन चारों पर विस्तार से विचार कीजिये |.......शेष अगले ब्लॉग में
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
                                                                                                                        
जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर