|| श्री हरी
||
सबकुछ परमात्मा के अर्पण कर देने का अर्थ घर-द्वार छोड़कर संन्यासी हो जाना या कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर कर्महीन हो बैठना नहीं है | सांसारिक वस्तुओं पर हमने भूलसे जो ममता आरोपित कर रखी है यानी उनमें जो अपनापन है उसे उठा देना | यही उसकी वस्तु उसके अर्पण कर देना है | वस्तुएँ तो उसी की हैं , हमसे छीन भी जाती हैं परन्तु हम उन्हें भ्रम से अपनी मान लेते हैं, इसी से छिनने के समय हमें रोना भी पड़ता है |
आज की शुभ
तिथि – पंचांग
माघ
कृष्ण,द्वादशी,गुरूवार, वि० स० २०६९
सर्वस्व अर्पण
सबकुछ परमात्मा के अर्पण कर देने का अर्थ घर-द्वार छोड़कर संन्यासी हो जाना या कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर कर्महीन हो बैठना नहीं है | सांसारिक वस्तुओं पर हमने भूलसे जो ममता आरोपित कर रखी है यानी उनमें जो अपनापन है उसे उठा देना | यही उसकी वस्तु उसके अर्पण कर देना है | वस्तुएँ तो उसी की हैं , हमसे छीन भी जाती हैं परन्तु हम उन्हें भ्रम से अपनी मान लेते हैं, इसी से छिनने के समय हमें रोना भी पड़ता है |
एक धनी सेठ का बड़ा कारोबार है, उसपर एक मुनीम
काम करता है | सेठ ने उसको ईमानदार और कर्तव्यपरायण समझकर सम्पत्ति की रक्षा,
व्यापार के सञ्चालन और नियमानुसार व्यवहार करने का सारा भार सौंप रखा है | अब
मुनीम का यही काम है कि वह मालिक की किसी भी वस्तुपर अपना किंचित भी अधिकार न
समझकर, किसीपर ममता या अहंकार न रखकर मालिक की आज्ञा और उसकी नियत की हुई विधि के
अनुसार समस्त कार्य बड़ी दक्षता, सावधानी और ईमानदारी के साथ करता रहे | करोड़ो का
लेन-देन करे, करोड़ों की सम्पत्ति पर मालिक की भाँति अपनी सँभाल रखे, मालिक के नाम
से हस्ताक्षर करे, परन्तु अपना कुछ भी न समझे | मूल-धन मालिक का, कारोबार में
होनेवाला मुनाफा मालिक का और नुकसान का उत्तरदायित्व भी मालिक का |
यदि वह मुनीम कहीं भूल, प्रमाद या बेईमानी से
मालिक के धन को अपना समझकर अपने काममें लाना चाहे, मालिक की सम्पत्ति या नफे की
रकम पर अधिकार करले तो वह चोर, बेईमान या अपराधी समझा जाता है | न्यायालय में
मुकद्दमा जानेपर वह सम्पत्ति उससे छीन ली जाती है, उसे कठोर दण्ड मिलता है और उसके
नामपर इतना कलंक लग जाता है जिससे वह सबमें अविश्वासी समझा जाकर सदा के लिए दुखी
हो जाता है | इसी प्रकार यदि मालिक की कोठी का भार संभालकर वह काम करने से जी
चुराता है, मालिक के नियमों को तोड़ता है तो भी वह अपराधी होता है, अतएव मुनीम के
लिए यह दोनों ही बातें निषिद्ध हैं |
इसी तरह यह समस्त जगत उस परमात्मा का है, वही
यावन्मात्र पदार्थों का उत्पन्न करने वाला, वही नियंत्रणकर्ता, वही आधार और वही
स्वामी है, उसी ने हमको हमारे कर्मवश जैसी योनि, जो स्थिति मिलनी चाहिए थी उसी में
उत्पन्न कर अपनी कुछ वस्तुओं की संभाल और सेवा का भार दे दिया है और हमारे लिए
कर्तव्य की विधि भी बतला दी है | परन्तु हमने भ्रम से परमात्मा के पदार्थों को अपना मान लिया
है, इसीलिए हमारी दुर्गति होती है | यदि हम अपनी इस भूल को मिटाकर यह समझ
लें कि जो कुछ है सो परमात्मा का है, हम तो उसके
सेवकमात्र हैं, उसकी सेवा करना ही हमारा धर्म है, तो वह परमात्मा
हमें ईमानदार समझकर हमपर प्रसन्न होता है और हम उसकी कृपा और पुरस्कार के पात्र
होते हैं | माया के बंधन से छूटना ही सबसे बड़ा पुरस्कार है | जो कुछ है सो परमात्मा
का है, इस बुद्धि के आ जानेपर ममता चली जाती है और जो कुछ है सो परमात्मा ही है,
इस बुद्धि से अहंकार का नाश हो जाता है—यानी एक
परमात्मा को ही जगतका उपादान और निमित्तकारण समझ लेने से उसमें ममता और अहंकार
(मैं और मेरा) नष्ट हो जाता है | ‘मैं-मेरा’
ही बंधन है, भगवान् का शरणागत भक्त
‘मैं-मेरा’ के बन्धन से मुक्त होकर परमात्मा से कहता है कि बस, केवल एक तू ही
है और सब तेरा ही है |
यही अर्पण है, इस अर्पण की सिद्धि हो जाने पर
साधक बंधनमुक्त हो जाता है, उसे किसी प्रकार की कोई चिंता नहीं रहती | जो चिंता करता है, अपने
को बंधा हुआ मानता है, बंधन से मुक्ति चाहता है, वह वास्तव में परमात्मा के तत्त्व
को जानकर उनके शरण नहीं हुआ है | अपने
उद्धार की चिंता तो शरणागति के साधक के चित्त से भी चली जाती है | वास्तव में बात
भी यही है | शरण ग्रहण करने पर भी यदि शरणागत को चिंता करनी पड़े तो वह शरण ही
कैसी ? जो जिसकी शरण होता है उसकी चिंता उसके
स्वामी को ही रहती है |
जो जाको शरणो लियो, ताकहँ ताकी लाज |
उलटै जल मछली चले, बह्यो जात गजराज ||
जब कबूतर
के शरणापन्न हो जाने पर दया और शरणागतवत्सलता के वशीभूत हो महाराज शिवि अपने शरीर
का मांस देकर उसकी रक्षा कर सकते हैं, तब वह परमेश्वर जो अनाथों का नाथ है, दया का
अनन्त, अथाह सागर है, जगत के इतिहास में शरणागतवत्सलता की बड़ी-से-बड़ी घटना जिसकी
शरणागतवत्सलता के सामने सागर की तुलना में एक जलकण के सदृश भी नहीं है, क्या शरण
होनेपर वह हमारी रक्षा और उद्धार न करेगा ? यदि इतनेपर हमारे मन में अपने उद्धार
की चिंता होती है और हम अपने को शरणागत भी समझते हैं तो यह हमारी नीचता है, हम
शरणागति का रहस्य ही नहीं समझते | हम शरणागति का रहस्य ही नहीं समझते | वास्तव में
शरणागत भक्त को उद्धार होने-न-होनेसे मतलब ही क्या है ? वह तो अपने-आप को
मन-बुद्धिसहित उसके चरणों में समर्पितकर सर्वथा निश्चिन्त हो जाता है, उसे उद्धार
की परवा की क्यों होने लगी ? शरणागति के रहस्य को समझनेवाले भक्त के लिए उद्धार की
चिंता करना तो दूर रहा, वह इस प्रसंग की स्मृति को भी पसंद नहीं करता | यदि भगवान्
स्वयं कभी उसे उद्धार की बात कहते हैं तो वह
अपनी शरणागति में त्रुटी समझकर लज्जित और संकुचित होकर अपने को धिक्कारता
है | वह समझता है कि यदि मेरे मन में कहीं मुक्ति की इच्छा छिपी हुई न होती तो आज
इस अप्रिय प्रसंग के लिए अवसर ही क्यों आता ? मुक्ति तो भगवत्प्रेम का पासंग मात्र
है, उस प्रेमधन को छोड़कर पासंग की इच्छा करना अत्यंत लज्जा का विषय है | मुक्ति की
इच्छा को कलंक समझकर और अपनी दुर्बलता तथा नीचाशयता का अनुभव कर भगवान् पर अपना
अविश्वास जानकर वह परमात्मा के सामने एकांत में रोकर पुकार उठता है कि— ‘हे
प्रभो ! जबतक मेरे हृदय में मुक्ति की इच्छा बनी हुई है तबतक मैं आपका दास कहाँ ?
मैं तो मुक्ति का ही गुलाम हूँ | आपको छोड़कर अन्य की आशा करता हूँ, मुक्ति के लिए
आपकी भक्ति करता हूँ और इतनेपर भी अपने को निष्काम प्रेमी शरणागत भक्त समझता हूँ |
नाथ ! यह मेरा दम्भाचरण है | स्वामिन ! दयाकर इस दम्भ का नाश कीजिये | मेरे हृदय
से मुक्तिरुपी स्वार्थ की कामना का भी मूलोच्छेद कर अपने अनन्य प्रेम की भिक्षा
दीजिये | आप-सरीखे अनुपमेय दयामय से कुछ माँगना अवश्य ही लड़कपन है, परन्तु आतुर
क्या नहीं करता ?
इस तरह से शरणागत भक्त सबकुछ भगवदर्पण कर सब प्रकार से निश्चिन्त हो रहता है |
.......शेष अगले ब्लॉग में
इस तरह से शरणागत भक्त सबकुछ भगवदर्पण कर सब प्रकार से निश्चिन्त हो रहता है |
.......शेष अगले ब्लॉग में
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण
!!! नारायण !!!
जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर