|| श्री हरी
||
आज की शुभ
तिथि – पंचांग
माघ कृष्ण,त्रयोदशी,शुक्रवार, वि० स० २०६९
भगवान् के प्रत्येक विधान में
सन्तोष
इस अवस्था
में जो कुछ होता है वह उसी में सन्तुष्ट रहता है | प्रारब्धवश
अनिच्छा या परेक्षा से जो कुछ भी लाभ-हानि, सुख-दुःख की प्राप्ति होती है वह उसको
परमात्माका दयापूर्ण विधान समझकर सदा समानभाव से सन्तुष्ट, निर्विकार और शान्त
रहता है | गीता में कहा है—
यदृच्छालाभसंतुष्टो द्वन्द्वातीतो विमत्सरः |
समः
सिद्धावसिद्धौ च कृत्वापि न निबध्यते || (गीता ४ | २२)
अपने-आप
जो कुछ आ प्राप्त हो, उसमें ही सन्तुष्ट रहनेवाला हर्ष-शोकादि द्वन्द्वों से अतीत
हुआ तथा मत्सरता अर्थात् ईर्ष्या से रहित सिद्धि और असिद्धि में समत्वभाववाला
पुरुष कर्मों को करके भी नहीं बंधता है |
वास्तव में शरणागत भक्त इस तत्त्व
को जानता है कि दैवयोग से जो कुछ आ प्राप्त होता है,
वह ईश्वर के न्यायसंगत विधान और उसकी दयापूर्ण आज्ञा से होता है | इससे वह
उसे परम सुहृद प्रभुद्वारा भेजा हुआ इनाम समझकर आनंद से मस्तक झुकाकर ग्रहण करता
है | जैसे कोई प्रेमी सज्जन अपने किसी प्रेमी न्यायकारी सुहृद सज्जन के द्वारा
किये हुए न्याय को अपनी इच्छा से प्रतिकूल फैसला होनेपर भी उस सज्जन की
न्यायपरायणता, विवेक-बुद्धि, विचारशीलता, सुहृदता, पक्षपातहीनता और प्रेमपर
विश्वास रखकर हर्ष के साथ स्वीकार कर लेता
है, इसी प्रकार शरणागत
भक्त भी भगवान् के कड़े-से-कड़े विधान को सहर्ष सादर स्वीकार करता है; क्योंकि वह
जानता है, मेरा सुहृद अकारण करुणाशील भगवान् जो कुछ विधान करता है उसमें उसकी दया,
प्रेम, न्याय और मेरी मंगलकामना भरी रहती है | वह भगवान् के किसी भी
विधानपर कभी भूलकर भी मन मैला नहीं करता |
कभी-कभी भगवान् अपने शरणागत भक्त की कठिन
परीक्षा भी लिया करते हैं, वे सब कुछ जानते हैं, तीनों काल की कुछ भी बात उनसे
छिपी हुई नहीं है तथापि भक्त के हृदय से मान, अहंकार, दुर्बलता आदि मलों को हरकर
उसे निर्मल बनाने और उसे परिपक्क कर उसका परम हित करने के लिए परीक्षा की लीला
किया करते हैं |
जो परमात्मा के प्रेमी सज्जन शरणागति के
तत्त्व को समझ लेते हैं उन्हें तो कोई भी विषय अपने मन से प्रतिकूल प्रतीत ही नहीं
होता | बाजीगर की कोई भी चेष्टा उसके जमूरे को अपने मनसे प्रतिकूल या दुःखदायक
नहीं दीखती | वह अपने स्वामी की इच्छा के अधीन होकर बड़े हर्ष के साथ उसकी प्रत्येक
क्रिया को स्वीकार करता है | इसी प्रकार भक्त भी भगवान की प्रत्येक लीला में
प्रसन्न रहता है | वह जानता है कि यह सब मेरे नाथ की माया है | वे अद्भुत खिलाड़ी
नाना प्रकार के खेल करते हैं | मुझपर तो उनकी अपार दया है जो उन्होंने अपनी लीला
में मुझे साथ रखा है—यह मेरा बड़ा सौभाग्य है जो मैं उस लीलामय की लीलाओं का साधन
बन सका हूँ, यों समझकर वह उसकी प्रत्येक लीला में, उसके प्रत्येक खेल में उसकी
चातुरी और उसके पीछे उसका दिव्य दर्शन कर पद-पद पर प्रसन्न होता है | यह तो सिद्ध
शरणागत भक्त की बात है परन्तु शरणागति का साधक भी
प्रत्येक सुख-दुःख को उसका दयापूर्ण विधान मानकर प्रसन्न होता है |
यहाँ पर यह प्रश्न होता है कि सुख की प्राप्ति में तो प्रसन्न होना स्वाभाविक और
युक्तियुक्त है, परन्तु दुखमें सुख की तरह प्रसन्न होना कैसे संभव है ? इसका उत्तर
यह है कि परमात्मा के तत्त्व को जाननेवाले पुरुष की दृष्टि में तो सुख की प्राप्ति
से होनेवाली प्रसन्नता और शांति भी विकार ही है | वह तो पुण्य-पापवश प्राप्त
होनेवाले अनुकूल या प्रतिकूल विषयजन्य सुख-दुःख दोनों से ही अतीत है | परन्तु
साधनकाल में भी प्रसन्नता तो होनी ही चाहिए | जैसे कठिन रोग के समय बुद्धिमान रोगी
सद्वैद्यद्वारा दी हुई अत्यंत कटु उपयोगी औषधि का सहर्ष सेवन करता है और वैद्य का
बड़ा उपकार मानता है, इसी प्रकार निःस्वार्थी वैद्यरूप परम
सुहृद परमात्माद्वारा विधान किये हुए कष्टों को सहर्ष स्वीकार करते हुए उसकी कृपा
और सदाशयता के लिए ऋणी होकर सुखी होना चाहिए | भगवान्
का प्रिय प्रेमी शरणागत भक्त महान दुःखरूप फल को बड़े आनंद के साथ भोगता हुआ पद-पद
पर उसकी दया का स्मरण कर परम प्रसन्न होता है | वह समझता है कि दयालु
डाक्टर जैसे पके हुए फोड़ो में चीरा देकर सड़ी हुई मवाद को बाहर निकालकर उसे
रोगमुक्त कर देता है, इसी प्रकार भगवान् भक्त के हितार्थ कभी-कभी कष्टरूपी चीरा
लगाकर उसे निरोग बना देते हैं | इसमें उनकी दया ही भरी रहती है | यह समझकर भक्त अपने भगवान् के प्रत्येक विधान में परम सन्तुष्ट रहता
है | वह दुःख से उद्विग्न नहीं होता और सुख की स्पृहा नहीं करता ‘दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृहः |’ (गीता २ |
५६ ) .......शेष अगले ब्लॉग में
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण
!!! नारायण !!!
जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर