※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 9 फ़रवरी 2013

शरणागति-4


|| श्री हरी ||
आज की शुभ तिथि – पंचांग
माघ  कृष्ण,चतुर्दशी,शनिवार, वि० स० २०६९


भगवान् के आज्ञानुसार कर्म
   इसलिए सुख की इच्छा न रहने के कारण वह (भक्त) आसक्ति या कामनावश कोई भी निषिद्ध कार्य नहीं कर सकता | उसका प्रत्येक कार्य ईश्वर के आज्ञानुसार होता है | उसकी कोई भी क्रिया परमात्मा की इच्छा के प्रतिकूल नहीं होती; क्योंकि परमात्मा की इच्छा में ही वह अपनी इच्छा मिला देता है, वह अपनी कोई स्वतन्त्र इच्छा नहीं रखता | जब कि एक साधारण श्रद्धालु सेवक भी अपने स्वामी के प्रतिकूल कोई कार्य करना नहीं चाहता, कभी भूल से कोई विपरीत आचरण हो जाता है तो वह लज्जित-संकुचित होकर अपनी भूलपर अत्यन्त पश्चात्ताप करता है, तब भला निष्काम प्रेमभाव से शरण में आया हुआ श्रद्धालु ईश्वरभक्त परमात्मा के प्रतिकूल किंचिन्मात्र कार्य भी कैसे कर सकता है ? जैसे सतीशिरोमणि पतिव्रता स्त्री अपने परम प्रिय पति की भृकुटी की ओर ताकती हुई सदा-सर्वदा पति के अनुकूल ही उसकी छाया के समान चलती है, उसी प्रकार ईश्वर-प्रेमी शरणागत भक्त भगवदिच्छाका अनुसरण करता है, सब कुछ उसी का समझकर उसी के लिए कार्य करता है |
   यहाँपर यह प्रश्न होता है कि जब ईश्वर सबके प्रत्यक्ष नहीं है तब ईश्वर की आज्ञा या इच्छा का पता कैसे लगे ? इसका उत्तर यह है कि प्रथम तो शास्त्रों की आज्ञा ही एक प्रकार से ईश्वर की आज्ञा है; क्योंकि त्रिकालज्ञ भक्त ऋषियों ने भगवान् का अभिप्राय समझकर ही प्रायः शास्त्रों का निर्माण किया है | दूसरे श्रीमद्भगवद्गीता जैसे ग्रंथों में भगवदाज्ञा प्रत्यक्ष ही है | इसके सिवा भगवान् सर्वव्यापी और सर्वान्तर्यामी होने से सबके हृदय में सदा प्रत्यक्ष विद्यमान हैं | मनुष्य यदि स्वार्थ छोड़कर सरल जिज्ञासु-भाव से हृदयस्थित ईश्वर से पूछे तो उसे साधारणतया यथार्थ उत्तर मिल ही जाता है | झूठ बोलने, चोरी करने या हिंसादि करने के लिए किसी का भी हृदय सच्चे भाव से आज्ञा नहीं देता | यही भगवान् की इच्छा का संकेत है |
   अन्तःकरणपर अज्ञान का विशेष आवरण होने के कारण जिस प्रश्न के उत्तर में शंकायुक्त जवाब मिले, जिसके निर्णय करने में हमारी बुद्धि समर्थ न हो, उस विषय में स्वार्थरहित सदाचारी धर्म के तत्त्व को जानने वाले पुरुषों से पूछकर निर्णय कर लेना चाहिए | जिस विषय में अपने मन में शंका न हो, उस विषय में भी उत्तम पुरुषों से परामर्श कर लेना तो लाभदायक ही है; क्योंकि जबतक मनुष्य परमात्मा को तत्त्व से नहीं जान लेता तबतक भ्रम से कहीं-कहीं असत्य का सत्य के रूप में प्रतीत हो जाना संभव है, इसलिए निर्णीत विषयों को भी सत्पुरुषों की सम्मति से मार्जन कर लेना उचित है | अन्तःकारण शुद्ध होनेपर परमात्मा का संकेत यथार्थ समझ में आने लगता है | फिर साधक जो कुछ करता है सो सब प्रायः ईश्वर के अनुकूल ही करता है |
   यह देखा जाता है कि मालिक के इच्छानुसार बर्तनेवाला स्वामिभक्त सेवक जो सदा मालिक के इशारे के अनुसार काम करता है, वह मालिक के भाव को तनिक-से इशारे मात्र से ही समझ लेता है | जब साधारण मनुष्यों में ऐसा होता है तब एक ईश्वर का शरणागत भक्त श्रद्धा, विश्वास और प्रेम के बलसे ईश्वर के तात्पर्य को समझने लगे, इसमें आश्चर्य ही क्या है ?
   ईश्वर की इच्छा समझने के लिए एक बात और है | यह समझ लेना चाहिए कि ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वसुहृद, दयासागर, सबके आत्मा और सबके हित में रत है | अतएव किसी भी जीव का किसी भी प्रकार से किसी भी काल में अहित या अनिष्ट करनेमें उसकी सम्मति नहीं हो सकती, इसलिए जिस कार्य से यथार्थ रूप में दूसरों का हित होता हो, वही ईश्वर की इच्छा के अनुकूल कार्य है और जिससे जीवों का अनिष्ट होता हो, वह उसकी इच्छा के प्रतिकूल कार्य है |
   कुछ लोग भ्रमवश शास्त्र या धर्म की आड़ लेकर पराये अहित, अनिष्ट या हिंसा आदि को धर्म मान लेते हैं परन्तु ऐसा मानना अनुचित है | हिंसा और अहित कभी धर्म या ईश्वर को अभिप्रेत नहीं हो सकता | अवश्य ही किसी के हित के लिए माता-पिता या गुरुद्वारा स्नेहभाव से अपने बालक या शिष्य को ताड़ना देने के समान दण्ड आदि देना हिंसा में शामिल नहीं है |
   अतएव भक्त प्रत्येक कार्य भगवदिच्छा के अनुकूल ही करता है, जिससे वह कभी पाप या निषिद्ध कर्म तो कर ही नहीं सकता, उसका प्रत्येक कार्य स्वाभाविक ही सरल, सात्त्विक और लोक-हितकारी होता है; क्योंकि उसका संसार में न कोई स्वार्थ है, न किसी वस्तु में आसक्ति है और न किसी काल में किसी से उसे भय है |
   शरणागत भक्त की तो बात ही क्या है, भय और पाप तो उसके भी नहीं रहते जो ईश्वर का यथार्थ रूप से अस्तित्व (होनापन) ही मान लेता है | राजा या राजकर्मचारी निर्जन स्थान और अन्धकारमयी रात्रि में सब जगह मौजूद नहीं रहते परन्तु राज्य की सत्ता के कारण ही लोग प्रायः नियमविरुद्ध कार्य नहीं करते | राजकर्मचारी जहाँ रहता है वहाँ तो कानून तोड़ना बड़ा ही कठिन रहता है | जब राजसत्ता का यह प्रताप होता है तब सर्वशक्तिमान परमात्मा को जो सब जगह देखता है, उससे पाप कैसे बन सकते हैं ? ईश्वर सर्वव्यापी होने के कारण सब जगह उनका रहना सिद्ध ही है | फिर भय भी किस बात का ? क्योंकि जब एक भी राजकर्मचारी साथ होनेपर कहीं चोरों का भय नहीं रहता तब राजराजेश्वर भगवान् जिसके साथ हों उसके लिए भय की सम्भावना ही कहाँ है ? जो अपने को भक्त कहकर परिचय देते हुए भी पापों में फंसे रहते या बात-बात में मृत्यु आदि का भय करते हैं वे यथार्थ में ईश्वर का अस्तित्व ही नहीं मानते | ईश्वर को माननेवाले तो नित्य निष्पाप और निर्भय रहते हैं |.......शेष अगले ब्लॉग में
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
                                                                                                                        
जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर