※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 10 फ़रवरी 2013

शरणागति-5


|| श्री हरी ||
आज की शुभ तिथि – पंचांग
माघ  कृष्ण, मौनी अमावस्या, रविवार, वि० स० २०६९

भगवान् का निरन्तर चिंतन
     शरणागत साधक को यदि कोई भय रहता है तो वह इसी बात का रहता है कि कहीं उसके चित्त से प्रियतम परमात्मा की विस्मृति न हो जाय | वास्तव में वह कभी परमात्मा को भूल भी नहीं सकता; क्योंकि परमात्मा के चिंतन का वियोग उससे क्षणमात्र के लिए भी सहा नहीं जाता तदर्पिताखिलाचारता तद्विस्मरणे परमव्याकुलता’ (नारदभक्तिसूत्र) सम्पूर्ण कर्म परमात्मा के अर्पण करके प्रतिपल उसे स्मरण रखना और क्षणभर की विस्मृति से मणिहीन सर्प या जल से निकाली हुई मछली की भाँति परम व्याकुल होकर तड़पने लगना उसका स्वभाव बन जाता है | उसकी दृष्टि में एकमात्र परमात्मा ही उसका परम जीवन, परम धन, परम आश्रय, परम गति और परम लक्ष्य रह जाता है, प्रतिपल उसके नाम-गुणों का चिंतन करना, उसके प्रेम में ही तन्मय हो रहना, बाह्यज्ञान भूलकर उन्मत्त हो जाना, परम उल्लास से प्रेममें झूमना, यही उसकी जीवनचर्या बन जाती है |
क्कचिद्रुदन्त्यच्युतचिन्तया क्कचिद्धसन्ति नन्दन्ति वदन्त्यलौकिकाः |
नृत्यन्ति गायन्त्यनुशीलयन्त्यजं भवन्ति तूष्णीं परमेत्य निर्वृता: ||
(श्रीमद्भा० ११ / ३ / ३२)
वे भक्तगण कभी उन अच्युत का चिंतन करते हुए रोते हैं, कभी हँसते हैं, कभी आनन्दित होते हैं, कभी अलौकिक कथा कहने लगते हैं, कभी नाचते हैं, कभी गाते हैं, कभी उन अजन्मा प्रभु की लीलाओं का अनुकरण करते हैं और कभी परमानन्द को पाकर शान्त और चुप हो रहते हैं |
   इस प्रकार परमात्मा के शरण का तत्त्व जानकर वे भक्त भगवान् की तद्रूपता को प्राप्त हो जाते हैं—
तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायाणा: |
                   गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषा:   || (गीता ५ | १७)
‘तद्रूप है बुद्धि जिनकी तथा तद्रूप है मन जिनका और उस सच्चिदानन्दघन परमात्मा में ही है निरंतर एकीभाव से स्थिति जिनकी, ऐसे परमेश्वर परायण पुरुष ज्ञान के द्वारा पापरहित हुए अपुनरावृत्ति अर्थात् परमगति को प्राप्त होते हैं |’ ऐसे ही पुरुषों के लिए भगवान् ने कहा है, मैं उसका अत्यन्त प्रिय हूँ और वह मुझे अत्यंत प्रिय है ‘प्रियो ही ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः ||’ (गीता ७ | १७) उससे मैं अदृश्य नहीं होता, वह मुझसे अदृश्य नहीं होता | ‘तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति ||’ (गीता ६ | ३०)
   ऐसे पुरुष के द्वारा शरीर से जो कुछ क्रिया होती है सो क्रिया नहीं समझी जाती है | आनन्द में मग्न हुआ वह भगवान् का शरणागत भक्त लीलामय भगवान् की आनन्दमयी लीला का ही अनुकरण करता है, अतएव उसके कर्म भी लीलामात्र से ही हैं | भगवान् कहते हैं—
सर्वभूतस्थितं यो मां भजत्येकत्वमास्थितः |
                  सर्वथा वर्तमानोऽपि स योगी मयि वर्तते || (गीता ६ | ३१)
‘जो पुरुष एकीभाव से स्थित हुआ सम्पूर्ण भूतों में आत्मरूप से स्थित मुझ सच्चिदानंदघन वासुदेव को भजता है, वह योगी सब प्रकार से बर्तता हुआ भी मुझमें ही बर्तता है; क्योंकि उसके अनुभव में मेरे सिवा अन्य कुछ है ही नहीं |’
इसलिए वह सबके साथ अपने आत्मा के सदृश ही बर्तता है, उससे कभी किसी का अनिष्ट नहीं हो सकता | ऐसे अभिन्नदर्शी परमात्मपरायण तद्रूप भक्तों में कोई तो स्वामी शुकदेवजी की तरह लोगों के उद्धार के लिए उदासीन की भांति विचरते हैं, कोई अर्जुन की भांति भगवदाज्ञानुसार आचरण करते हुए कर्तव्य कर्मों के पालन में लगे रहते हैं, कोई प्रातःस्मरणीया भक्तिमती गोपियों की तरह अद्भुत प्रेमलीला में मत्त रहते हैं और कोई जड़भरत की भांति जड़ और उन्मत्तवत् चेष्टा करते रहते हैं |
   ऐसे शरणागत भक्त स्वयं तो उद्धाररूप हैं ही और जगतका उद्धार करनेवाले हैं, ऐसे महापुरुषों के दर्शन, स्पर्श, भाषण और चिंतन से ही मनुष्य पवित्र हो जाते हैं | वे जहाँ जाते हैं वहींका वातावरण शुद्ध हो जाता है, पृथ्वी पवित्र होकर तीर्थ बन जाती है, ऐसे ही पुरुषों का संसार में जन्म लेना सार्थक और धन्य है, ऐसे ही महात्माओं के लिए यह कहा गया है—
कुलं पवित्रं जननी कृतार्था वसुन्धरा पुण्यवती च तेन |
अपारसंवित्सुखसागरेऽस्मिन्लीनं परे ब्रह्मणि यस्य चेतः ||
(स्कं० पु० माहे० खं० कौ० खं० ५५ | १४०)

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!
                                                                                                                        
जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर