※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 6 मार्च 2013

शिव-तत्त्व-5



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण नवमीं, बुधवार, वि०स० २०६९

*शिव-तत्त्व*

गत ब्लॉग से आगे....... श्रीरामचरितमानस में भी भगवान् शंकर ने पार्वतीजी से भगवान् श्रीराम के सम्बन्ध में कहा है—
अगुन अरूप अलख अज जोई | भगत  प्रेम  बस  सगुन  सो  होई ||
जो गुन रहित सगुन सोई कैसें | जलु हिम उपल बिलग नहिं जैसें ||
राम     सच्चिदानंद     दिनेसा | नहिं   तहँ  मोह  निसा लवलेसा ||
राम ब्रह्म ब्यापक  जग  जाना | परमानंद        परेस       पुराना ||
    इसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण के परब्रह्म परमात्मा होने का विविध ग्रंथों में उल्लेख है | ब्रह्मवैवर्तपुराण में कथा है कि एक महासर्ग के आदि में भगवान् श्रीकृष्ण के दिव्य अंगों से भगवान् नारायण और भगवान् शिव तथा अन्यान्य सब देवी-देवता प्रादुर्भूत हुए | वहाँ श्रीशिव जी ने भगवान् श्रीकृष्ण की स्तुति करते हुए कहा है—
विश्वं विश्वेश्वरेशं च  विश्वेशं विश्वकारणम् |
विश्वाधारं च विश्वस्तं विश्वकारणकारणम् ||
विश्वरक्षाकारणं    विश्वघ्नं  विश्वजं परम् |
फलबीजं  फलाधारं  फलं    तत्फलप्रदम् ||
(ब्रह्मवै० १ | ३ | २५—२६)
‘आप विश्वरूप हैं, विश्व के स्वामी हैं, विश्व के स्वामियों के भी स्वामी हैं, विश्व के कारण के भी कारण हैं, विश्व के आधार हैं, विश्वस्त हैं, विश्वरक्षक हैं, विश्वका संहार करनेवाले हैं और नाना रूपों से विश्व में आविर्भूत होते हैं | आप फलों के बीज हैं, फलों के आधार हैं, फलस्वरुप हैं और फलदाता हैं |’
    गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वयं भी अपने लिए श्रीमुख से कहा है—
ब्रह्मणो  हि  प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य  च |
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च |
(१४ | २७)
गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत् |
प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं  बीजमव्ययम् ||
तपाम्यहमहं   वर्षं   निगृह्णाम्युत्सृजामि  च |
अमृतं     चैव     मृत्युश्च    सदसच्चाहमर्जुन ||
(९ | १८-१९)
मत्तः    परतरं   नान्यत्किञ्चिदस्ति  धनञ्जय |
मयि   सर्वमिदं   प्रोतं   सूत्रे  मणिगणा  इव ||
(७ | ७)
यो  मामजमनादिं     वेत्ति  लोकमहेश्वरम् |
असंमूढः        मर्त्येषु   सर्वपापै:  प्रमुच्यते ||
(१० | ३)
‘हे अर्जुन ! उस अविनाशी परब्रह्म का और अमृत का तथा नित्य-धर्मका एवं अखंड एकरस आनन्द का मैं ही आश्रय हूँ; अर्थात् उपर्युक्त ब्रह्म, अमृत, अव्यय और शाश्वत धर्म तथा ऐकान्तिक सुख— यह सब मैं ही हूँ तथा प्राप्त होनेयोग्य, भरण-पोषण करनेवाला, सबका स्वामी, शुभाशुभका देखनेवाला, सबका वासस्थान, शरण लेने-योग्य, प्रत्युपकार न चाहकर हित करनेवाला उत्पत्ति-प्रलयरूप, सबका आधार, निधान और अविनाशी कारण भी मैं ही हूँ | मैं ही सूर्यरूपसे तपता हूँ तथा वर्षा को आकर्षण करता हूँ और बरसाता हूँ एवं हे अर्जुन ! मैं ही अमृत और मृत्यु एवं सत और असत—सबकुछ मैं ही हूँ |’
    ‘हे धनञ्जय ! मेरे सिवा किंचिन्मात्र भी दूसरी वस्तु नहीं है | यह सम्पूर्ण जगत सूत्र में सूत्र के मणियोंके सदृश मेरे में गुंथा हुआ है | जो मुझको अजन्मा (वास्तव में जन्मरहित), अनादि तथा लोकों का महान ईश्वर तत्त्वसे जानता है, वह मनुष्यों में ज्ञानवान पुरुष सम्पूर्ण पापों से मुक्त हो जाता है |’
    ऊपर के इन अवतरणों से यह सिद्ध हो गया कि भगवान् श्रीशिव, विष्णु, ब्रह्मा, शक्ति, राम, कृष्ण—तत्त्वतः एक ही हैं | इस विवेचन पर दृष्टि डालकर विचार करनेसे यही निष्कर्ष निकलता है कि सभी उपासक एक सत्य, विज्ञानानंदघन परमात्मा को मानकर सच्चे सिद्धान्तपर ही चल रहे हैं | नाम-रूपका भेद है, परन्तु वस्तु-तत्त्व में कोई भेद नहीं | सबका लक्ष्यार्थ एक ही है | ईश्वर को इस प्रकार सर्वोपरि, सर्वव्यापी, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, निर्विकार, नित्य, विज्ञानानंदघन समझकर शास्त्र और आचार्यों के बतलाये हुए मार्ग के अनुसार किसी भी नाम-रूप से उसकी जो उपासना की जाती है, वह उस एक ही परमात्मा की उपासना है |.........शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!