※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 7 मार्च 2013

शिव-तत्त्व-6



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण दशमीं, गुरुवार, वि०स० २०६९
*शिव-तत्त्व*
गत ब्लॉग से आगे.......विज्ञानानंदघन सर्वव्यापी परमात्मा शिव के उपर्युक्त तत्त्व को न जानने के कारण ही कुछ शिवोपासक भगवान् विष्णु की निन्दा करते हैं और कुछ वैष्णव भगवान् शिव की निन्दा करते हैं | कोई-कोई यदि निन्दा और द्वेष नहीं भी करते हैं तो प्रायः उदासीन-से तो रहते ही हैं | परन्तु इस प्रकार का व्यवहार वस्तुतः ज्ञानरहित समझा जाता है | यदि यह कहा जाय कि ऐसा न करने से एकनिष्ठ अनन्य उपासना में दोष आता है, तो वह ठीक नहीं है, जैसे पतिव्रता स्त्री एकमात्र अपने पति को ही इष्ट मानकर उसके आज्ञानुसार उसकी सेवा करती हुई, पति के माता-पिता, गुरुजन तथा अतिथि-अभ्यागत और पति के अन्यान्य सम्बन्धी और प्रेमी बन्धुओं की भी पति के आज्ञानुसार पति की प्रसन्नता के लिए यथोचित आदरभाव से मन लगाकर विधिवत् सेवा करती है और ऐसा करती हुयी भी वह अपने एकनिष्ठ पातिव्रत-धर्मसे जरा भी न गिरकर उलटे शोभा और यश को प्राप्त होती है | वास्तव में दोष पाप-बुद्धि, भोग-बुद्धि और द्वेष-बुद्धि में है अथवा व्यभिचार और शत्रुता में है | यथोचित वैध-सेवा तो कर्तव्य है | इसी प्रकार परमात्मा के किसी एक नाम-रूप को अपना परम इष्ट मानकर उसकी अनन्यभाव से भक्ति करते हुए अन्यान्य देवों की भी अपने इष्टदेव के आज्ञानुसार उसी स्वामी की प्रीति के लिए श्रद्धा और आदर के साथ यथायोग्य सेवा करनी चाहिए | उपर्युक्त अवतरणों के अनुसार जब एक नित्य विज्ञानानंदघन ब्रह्म ही हैं, तथा वास्तव में उनसे भिन्न कोई दूसरी वस्तु ही नहीं है, तब किसी एक नाम-रूपसे द्वेष या उसकी निंदा, तिरस्कार और उपेक्षा करना उस परब्रह्म से ही वैसा करना है | कहीं भी श्रीशिव या श्रीविष्णु ने या ब्रह्मा ने एक-दूसरे की न तो निन्दा आदि की है और न निन्दा आदि करने के लिए किसी से कहा ही है, बल्कि निंदा आदि का निषेध और तीनों को एक मानने की प्रशंसा की है | शिवपुराण में कहा गया है—
एते परस्परोत्पन्ना  धारयन्ति   परस्परम् |
परस्परेण      वर्धन्ते      परस्परमनुव्रता: ||
क्कचिद्ब्रह्मा क्कचिद्विष्णु: क्कचिद्रुद्र: प्रशस्यते |
नानेव   तेषामाधिक्यमैश्वर्यं  चातिरिच्यते ||
अयं परस्त्वयं   नेति   संरम्भाभिनिवेशिन: |
यातुधाना भवन्त्येव पिशाचा वा न संशयः ||
‘ये तीनों (ब्रह्मा, विष्णु और शिव) एक-दूसरे से उत्पन्न हुए हैं, एक-दूसरे को धारण करते हैं, एक-दूसरे के द्वारा वृद्धिंगत होते हैं और एक-दूसरे के अनुकूल आचरण करते हैं | कहीं ब्रह्मा की प्रशंसा की जाती है, कहीं विष्णु की और कहीं महादेव की | उनका उत्कर्ष एवं ऐश्वर्य एक-दूसरे की अपेक्षा इस प्रकार अधिक कहा है मानो वे अनेक हों | जो संशयात्मा मनुष्य यह विचार करते हैं कि अमुक बड़ा है और अमुक छोटा है वे अगले जन्म में राक्षस अथवा पिशाच होते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं हैं |’
    स्वयं भगवान् शिव श्रीविष्णु भगवान् से कहते हैं—
मद्दर्शन   फलं   यद्वै   तदेव   तव  दर्शने |
ममैव हृदये विष्णुर्विष्णोश्च हृदये ह्यहम् ||
उभयोरंतरम् यो वै न जानाति मतो मम |
(शिव० ज्ञान० ४ | ६१-६२)
‘मेरे दर्शन का जो फल है वही आपके दर्शन का है | आप मेरे हृदय में निवास करते हैं और मैं आपके हृदय में रहता हूँ | जो हम दोनों में भेद नहीं समझता, वही मुझे मान्य है |’
    भगवान् श्रीराम भगवान् श्रीशिव से कहते हैं—
ममासि  हृदये  शर्व    भवतो    हृदये    त्वहम् |
आवयोरन्तरं  नास्ति  मूढाः  पश्यन्ति  दुर्धियः ||
ये      भेदं     विदधत्यद्धा    आवयोरेकरुपयो: |
कुम्भीपाकेषु  पच्यन्ते   नराः   कल्पसहस्त्रकम् ||
ये   त्वद्भक्ता:  सदासंस्ते  मद्भक्ता  धर्मसंयुताः |
मद्भक्ता अपि भूयस्या भक्त्या तव नतिङ्करा: ||
(पद्म० पाता० ४६ | २०—२२)
‘आप शंकर मेरे हृदय में रहते हैं और मैं आपके हृदय में रहता हूँ | हम दोनों में कोई भेद नहीं है | मुर्ख एवं दुर्बुद्धि मनुष्य ही हमारे अंदर भेद समझते हैं | हम दोनों एकरूप हैं, जो मनुष्य हम दोनों में भेद-भावना करते हैं वे हजार कल्प पर्यंत कुम्भीपाक नरकों में यातना सहते हैं | जो आपके भक्त हैं वे धार्मिक पुरुष सदा ही मेरे भक्त रहे हैं | और जो मेरे भक्त हैं वे प्रगाढ़ भक्ति से आपको भी प्रणाम करते हैं |’ .........शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!