|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण दशमीं, गुरुवार, वि०स० २०६९
*शिव-तत्त्व*

एते
परस्परोत्पन्ना धारयन्ति परस्परम् |
परस्परेण वर्धन्ते परस्परमनुव्रता: ||
क्कचिद्ब्रह्मा
क्कचिद्विष्णु: क्कचिद्रुद्र: प्रशस्यते |
नानेव तेषामाधिक्यमैश्वर्यं चातिरिच्यते ||
अयं
परस्त्वयं नेति संरम्भाभिनिवेशिन: |
यातुधाना
भवन्त्येव पिशाचा वा न संशयः ||
‘ये तीनों
(ब्रह्मा, विष्णु और शिव) एक-दूसरे से उत्पन्न हुए हैं, एक-दूसरे को धारण करते
हैं, एक-दूसरे के द्वारा वृद्धिंगत होते हैं और एक-दूसरे के अनुकूल आचरण करते हैं
| कहीं ब्रह्मा की प्रशंसा की जाती है, कहीं विष्णु की और कहीं महादेव की | उनका
उत्कर्ष एवं ऐश्वर्य एक-दूसरे की अपेक्षा इस प्रकार अधिक कहा है मानो वे अनेक हों
| जो संशयात्मा मनुष्य यह विचार करते हैं कि अमुक बड़ा है और अमुक छोटा है वे अगले
जन्म में राक्षस अथवा पिशाच होते हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं हैं |’
स्वयं भगवान् शिव श्रीविष्णु भगवान् से कहते
हैं—
मद्दर्शन
फलं यद्वै तदेव तव दर्शने |
ममैव
हृदये विष्णुर्विष्णोश्च हृदये ह्यहम् ||
उभयोरंतरम्
यो वै न जानाति मतो मम |
(शिव० ज्ञान० ४ |
६१-६२)
‘मेरे दर्शन का जो
फल है वही आपके दर्शन का है | आप मेरे हृदय में निवास करते हैं और मैं आपके हृदय
में रहता हूँ | जो हम दोनों में भेद नहीं समझता, वही मुझे मान्य है |’
भगवान् श्रीराम भगवान् श्रीशिव से कहते हैं—
ममासि हृदये शर्व
भवतो हृदये त्वहम् |
आवयोरन्तरं
नास्ति मूढाः पश्यन्ति
दुर्धियः ||
ये भेदं
विदधत्यद्धा आवयोरेकरुपयो: |
कुम्भीपाकेषु पच्यन्ते
नराः कल्पसहस्त्रकम् ||
ये त्वद्भक्ता:
सदासंस्ते मद्भक्ता धर्मसंयुताः |
मद्भक्ता
अपि भूयस्या भक्त्या तव नतिङ्करा: ||
(पद्म० पाता० ४६ |
२०—२२)
‘आप शंकर मेरे हृदय
में रहते हैं और मैं आपके हृदय में रहता हूँ | हम दोनों में कोई भेद नहीं है |
मुर्ख एवं दुर्बुद्धि मनुष्य ही हमारे अंदर भेद समझते हैं | हम दोनों एकरूप हैं,
जो मनुष्य हम दोनों में भेद-भावना करते हैं वे हजार कल्प पर्यंत कुम्भीपाक नरकों
में यातना सहते हैं | जो आपके भक्त हैं वे धार्मिक पुरुष सदा ही मेरे भक्त रहे हैं
| और जो मेरे भक्त हैं वे प्रगाढ़ भक्ति से आपको भी प्रणाम करते हैं |’
.........शेष अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!