※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 8 मार्च 2013

शिव-तत्त्व-7



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण एकादशी, शुक्रवार, वि०स० २०६९

*शिव-तत्त्व*
गत ब्लॉग से आगे.......इसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण भी भगवान् श्रीशिव से कहते हैं—
त्वत्परो नास्ति मे   प्रेयांस्त्वं  मदीयात्मन: परः |
ये त्वां निन्दति  पापिष्ठा   ज्ञानहीना विचेतसः ||
पच्यन्ते        कालसूत्रेण     यावच्चन्द्रदिवाकरौ |
कृत्वा लिङ्गं   सकृत्पूज्य   वसेत्कल्पायुतं दिवि ||
प्रजावान् भूमिमान् विद्वान्  पुत्रबान्धववांस्तथा |
ज्ञानवान्मुक्तिमान् साधुः शिवलिङ्गार्चनाद्भवेत् ||
शिवेति  शब्दमुच्चार्य   प्राणांस्त्यजति   यो   नरः |
कोटिजन्मार्जितात् पापान्मुक्तो मुक्तिं प्रयाति सः ||
(ब्रह्मवैवर्त० ६ | ३१-३२, ४५, ४७)
‘मुझे आपसे बढ़कर कोई प्यारा नहीं है, आप मुझे अपनी आत्मा से भी अधिक प्रिय हैं | जो प्रापी, अज्ञानी एवं बुद्धिहीन पुरुष आपकी निन्दा करते हैं, जबतक चन्द्र और सूर्य का अस्तित्व रहेगा तबतक कालसूत्र में (नरकोंमें) पचते रहेंगे | जो शिवलिंग का निर्माण कर एकबार भी उसकी पूजा कर लेता है, वह दस हजार कल्पतक स्वर्ग में निवास करता है, शिवलिंग के अर्चन से मनुष्य को प्रजा, भूमि, विद्या, पुत्र, बान्धव, श्रेष्ठता, ज्ञान एवं मुक्ति सब कुछ प्राप्त  हो जाता है | जो मनुष्य ‘शिव’ शब्द का उच्चारण कर शरीर छोड़ता है वह करोड़ों जन्मों के संचित पापों से छूटकर मुक्ति को प्राप्त हो जाता है |’
    भगवान् विष्णु श्रीमद्भागवत (४ | ७ | ५४) में दक्षप्रजापति के प्रति कहते हैं—
त्रयाणामेकभावानां यो न पश्यति वै भिदाम् |
सर्वभूतात्मनां ब्रह्मन्  स शान्तिमधिगच्छति ||
‘हे विप्र ! हम तीनों एकरूप हैं और समस्त भूतों की आत्मा हैं, हमारे अन्दर जो भेद-भावना नहीं करता, निःसन्देह वह शान्ति (मोक्ष) को प्राप्त होता है |’
    श्रीरामचरितमानस में भगवान् श्रीराम ने कहा है—
संकर प्रिय मम  द्रोही  सिव  द्रोही  मम दास |
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास ||
औरउ एक गुपुत मत  सबहि कहउँ कर जोरि |
संकर भजन बिना नर भगति न पावइ मोरि ||
    ऐसी अवस्था में जो मनुष्य दूसरे के इष्टदेव की निन्दा या अपमान करता है, वह वास्तव में अपने ही इष्टदेव का अपमान या निन्दा करता है | परमात्मा की प्राप्ति के पूर्वकाल में परमात्मा का यथार्थ रूप न जानने के कारण भक्त अपनी समझ के अनुसार अपने उपास्यदेव का जो स्वरुप कल्पित करता है, वास्तव में उपास्यदेव का स्वरुप उससे अत्यन्त विलक्षण है; तथापि उसकी अपनी बुद्धि, भावना तथा रूचि के अनुसार की हुई सच्ची और श्रद्धायुक्त उपासना को परमात्मा सर्वथा सर्वांश में स्वीकार करते हैं | क्योंकि ईश्वर-प्राप्ति के पूर्व ईश्वर का यथार्थ स्वरुप किसी के भी चिंतन में नहीं आ सकता | अतएव ईश्वर के किसी भी नाम-रूप की निष्कामभाव से उपासना करनेवाला पुरुष शीघ्र ही उस नित्य विज्ञानानंदघन परमात्मा को प्राप्त हो जाता है | हाँ, सकाम-भाव से उपासना करनेवाले को विलम्ब हो सकता है | तथापि सकाम-भाव से उपासना करनेवाला भी श्रेष्ठ और उदार ही माना गया है (गीता ७ | १८), क्योंकि अन्तमें वह भी ईश्वर को ही प्राप्त होता है | ‘मद्भक्ता यान्ति मामपि’ (गीता ७ | २३) |
    ‘शिव’ शब्द नित्य, विज्ञानानंदघन परमात्मा का वाचक है | यह उच्चारण में बहुत ही सरल, अत्यन्त मधुर और स्वाभाविक ही शान्तिप्रद है | ‘शिव’ शब्द की उत्पत्ति ‘वश कान्तौ’ धातु से हुई है, जिसका तात्पर्य यह है कि जिसको सब चाहते हैं उसका नाम ‘शिव’ है | सब चाहते हैं कि अखण्ड आनंद को | अतएव ‘शिव’ शब्द का अर्थ आनंद हुआ | जहाँ आनंद है वहीँ शांति है और परम आनंद को ही परम मंगल और कल्याण कहते हैं, अतएव ‘शिव’ शब्द का अर्थ परम मंगल, परम कल्याण समझना चाहिए | इस आनंददाता, परम कल्याणरूप शिव को ही शंकर कहते हैं | ‘शं’ आनंद को कहते हैं और ‘कर’ से करनेवाला समझा जाता है, अतएव जो आनंद करता है वही ‘शंकर’ है | ये सब लक्षण उस नित्य, विज्ञानानंदघन परम ब्रह्म के ही हैं |
    इस प्रकार रहस्य समझकर शिव की श्रद्धा-भक्तिपूर्वक उपासना करने से उनकी कृपा से उनका तत्त्व समझ में आ जाता है | जो पुरुष शिव-तत्त्व को जान लेता है उसके लिए फिर कुछ भी जानना शेष नहीं रह जाता |.........शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!