※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 9 मार्च 2013

शिवकथा- शिवप्राप्ति हेतु देवी पार्वती की भक्तिमय तपस्या



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी, शनिवार, वि०स० २०६९
*शिव-तत्त्व*
गत ब्लॉग से आगे.......शिव-तत्त्व को हिमालयतनया भगवती पार्वती यथार्थरूप से जानती थीं, इसीलिए छद्मवेषी स्वयं शिव के बहकाने से भी वे अपने सिद्धान्त से तिलमात्र भी नहीं टली | उमाशिव का यह संवाद बहुत ही उपदेशप्रद और रोचक है |
    
     शिवतत्त्वैकनिष्ठ पार्वती शिवप्राप्ति के लिए घोर तप करने लगीं | माता मेनका ने स्नेहकातरा होकर उ (वत्से !) मा (ऐसा तप न करो) कहा, इससे उसका नाम ‘उमा’ हो गया | उन्होंने सूखे पत्ते भी खाने छोड़ दिए, तब उनका ‘अपर्णा’ नाम पड़ा | उनकी कठोर तपस्या को देख-सुनकर परम आश्चर्यान्वित हो ऋषिगण भी कहने लगे कि ‘अहो, इसको धन्य है, इसकी तपस्या के सामने दूसरों की तपस्या कुछ भी नहीं है |’ पार्वती की इस तपस्या को देखने के लिए एक समय स्वयं भगवान् शिव जटाधारी वृद्ध ब्राह्मण के वेष में तपोभूमि में आये और पार्वती के द्वारा फल-पुष्पादि से पूजित होकर उसके तपका उद्देश्य शिव से विवाह करना है, यह जानकर कहने लगे—
    ‘हे देवि ! इतनी देर बातचीत करनेसे तुमसे मेरी मित्रता हो गयी है | मित्रता के नाते मैं तुमसे कहता हूँ, तुमने बड़ी भूल की है | तुम्हारा शिव के साथ विवाह करनेका संकल्प सर्वथा अनुचित है | तुम सोनेको छोड़कर काँच चाह रही हो, चन्दन त्यागकर कीचड़ पोतना चाहती हो | हाथी छोड़कर बैलपर मन चलाती हो | गंगाजल परित्याग कर कुएँ का जल पीने की इच्छा करती हो | सूर्य का प्रकाश छोड़कर खद्योत को और रेशमी वस्त्र त्यागकर चमड़ा पहनना चाहती हो | तुम्हारा यह कार्य तो देवताओं की सन्निधि का त्याग कर असुरों का साथ करने के समान है | उत्तमोत्तम देवों को छोड़कर शंकरपर अनुराग करना सर्वथा लोकविरुद्ध है |
    जरा सोचो तो सही कहाँ तुम्हारा कुसुम-सुकुमार शरीर और त्रिभुवनकमनीय सौन्दर्य और कहाँ जटाधारी, चिताभस्मलेपनकारी, श्मशानविहारी, त्रिनेत्र, भूतपति महादेव !  कहाँ तुम्हारे घर के देवतालोग और कहाँ शिवके पार्षद भूत-प्रेत ! कहाँ तुम्हारे पिता के घर के बजनेवाले सुन्दर बाजों की ध्वनि और कहाँ उस महादेव के डमरू, सिंगी और गाल बजानेकी ध्वनि ! न महादेव के माँ-बाप का पता है, न जाति का ! दरिद्रता इतनी कि पहनने को कपड़ा तक नहीं है ! दिगम्बर रहते हैं, बैल की सवारी करते हैं और बाघ का चमड़ा ओढ़े रहते हैं ! न उनमें विद्या है और न शौचाचार ही है | सदा अकेले रहनेवाले, उत्कट विरागी, मुण्डमालाधारी महादेव के साथ रहकर तुम क्या सुख पाओगी ?’
   
     पार्वती और अधिक शिव-निन्दा न सह सकीं | वे तमककर बोलीं—‘बस, बस, बस रहने दो, मैं और अधिक सुनना नहीं चाहती | मालूम होता है, तुम शिव के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं जानते | इसीसे यों मिथ्या प्रलाप कर रहे हो | तुम किसी धूर्त ब्रह्मचारी के रूप में यहाँ आये हो | शिव वस्तुतः निर्गुण हैं, करूणावश ही वे सगुण होते हैं | उन सगुण और निर्गुण—उभयात्मक शिवकी जाति कहाँ से होगी ? जो सबके हैं, उनके माता-पिता कौन होंगे और उनकी उम्रका ही क्या परिमाण बांधा जा सकता है ? सृष्टि उनसे उत्पन्न होती है, अतएव उनकी शक्ति का पता कौन लगा सकता है ? वही अनादि, अनन्त, नित्य, निर्विकार, अज, अविनाशी, सर्वशक्तिमान, सर्वगुणाधार, सर्वज्ञ, सर्वोपरि, सनातनदेव हैं | तुम कहते हो, महादेव विद्याहीन हैं | अरे, ये सारी विद्याएँ आयी कहाँ से हैं ? वेद जिनके निःश्वास हैं उन्हें तुम विद्याहीन कहते हो ? छिः ! छिः !! तुम मुझे शिव को छोड़कर किसी अन्य देवता का वरण करनेको कहते हो | अरे, इन देवताओं को जिन्हें तुम बड़ा समझते हो, देवत्व प्राप्त ही कहाँ से हुआ ? यह उन भोलेनाथकी ही कृपा का तो फल है | इन्द्रादि देवगण तो उनके दरवाजेपर ही स्तुति-प्रार्थना करते रहते हैं और बिना उनके गणों की आज्ञा के अन्दर घुसने का साहस नहीं कर सकते | तुम उन्हें अमंगलवेष कहते हो ? अरे, उनका ‘शिव’—यह मंगलमय नाम जिनके मुखमें निरन्तर रहता है, उनके दर्शनमात्र से सारी अपवित्र वस्तुएँ भी पवित्र हो जाती हैं, फिर भला स्वयं उनकी तो बात ही क्या है ? जिस चिताभस्म  की तुम निन्दा करते हो, नृत्य के अन्त में जब वह उनकें अंगो से झड़ती है उस समय देवतागण उसे अपने मस्तकोंपर धारण करने को लालायित होते हैं | बस, मैंने समझ लिया, तुम उनके तत्त्व को बिलकुल नहीं जानते | जो मनुष्य इस प्रकार उनके दुर्गम तत्त्व को बिना जाने उनकी निन्दा करते हैं, उनके जन्म-जन्मान्तरों के संचित किये हुए पुण्य विलीन हो जाते हैं | तुम जैसे शिव-निन्दक का सत्कार करने से भी पाप लगता है | शिवनिंदक को देखकर भी मनुष्य को सचैल स्नान करना चाहिए, तभी वह शुद्ध होता है | बस, अब मैं यहाँ से जाती हूँ | कहीं ऐसा न हो कि यह दुष्ट फिरसे शिवकी निन्दा प्रारम्भ कर मेरे कानों को अपवित्र करे | शिव की निन्दा करनेवाले को तो पाप लगता ही है, उसे सुननेवाला भी पापका भागी होता है |’ यह कहकर उमा वहाँ से चल दीं | ज्यों ही वे वहाँ से जाने लगीं, वटु वेषधारी शंकर ने उन्हें रोक लिया | वे अधिक देरतक पार्वती से छिपे न रह सके, पार्वती जिस रूप का ध्यान करती थीं उसी रूपमें उनके सामने प्रकट हो गये और बोले—‘मैं तुमपर प्रसन्न हूँ, वर माँगों’
     
    पार्वती की इच्छा पूर्ण हुई, उन्हें साक्षात् शिवके दर्शन हुए | दर्शन ही नहीं, कुछ कालमें शिवने पार्वती का पाणिग्रहण कर लिया |
    
    जो पुरुष उन त्रिनेत्र, व्याघ्राम्बरधारी, सदाशिव परमात्मा को निर्गुण, निराकार एवं सगुण, निराकार समझकर उनकी सगुण, साकार दिव्य मूर्ति की उपासना करता है, उसी की उपासना सच्ची और सर्वांगपूर्ण है | इस समग्रता में जितना अंश कम होता है, उतनी ही उपासना की सर्वांगपूर्णता में कमी है और उतना ही वह शिव-तत्त्व से अनभिज्ञ है |.........शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!