※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 10 मार्च 2013

महाशिवरात्रि की आप सभी को हार्दिक शुभकामनाएं


|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन कृष्ण (महाशिवरात्रि) रविवार, वि०स० २०६९


*शिव-तत्त्व*
गत ब्लॉग से आगे.......महेश्वर की लीलाएँ अपरम्पार हैं | वे दया करके जिनको अपनी लीलाएँ और लीलाओं का रहस्य जनाते हैं, वही जान सकते हैं | उनकी कृपा के बिना तो उनकी विचित्र लीलाओं को देख-सुनकर देवी, देवता एवं मुनियों को भी भ्रम हो जाया करता है, फिर साधारण लोगों की तो बात ही क्या है ? परन्तु वास्तव में शिवजी महाराज बड़े ही आशुतोष ! उपासना करनेवालों पर बहुत ही शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं | रहस्य को जानकर निष्काम-प्रेमभाव से भजनेवालों पर प्रसन्न होते हैं, इसमें तो कहना ही क्या है ? सकामभाव से, अपना मतलब गाँठने के लिए जो अज्ञानपूर्वक उपासना करते हैं उनपर भी आप रीझ जाते हैं, भोले भण्डारी मुँहमाँगा वरदान देने में कुछ भी आगा-पीछा नहीं सोचते | जरा-सी भक्ति करनेवाले पर ही आपके हृदय का दयासमुद्र उमड़ पड़ता है | इस रहस्य को समझनेवाले आपको व्यंगसे ‘भोलानाथ’ कहा करते हैं | इस विषय में गोसाईं तुलसीदासजी महाराज की कल्पना बहुत ही सुन्दर है | वे कहते हैं—
                      बावरो रावरो नाह भवानी !
दानि बड़ो दिन देत दये बिनु,  बेद    बड़ाई   भानी ||
निज घरकी बरबात बिलोकहु, हौ तुम परम सयानी |
सिवकी दई सम्पदा देखत, श्रीसरदा          सिहानी ||
जिनके भाल लिखी लिपि मेरी, सुखकी नहीं निसानी |
तिन रंकनकौ नाक संवारत,  हौं    आयो    नकबानी ||
दुःख दीनता दुखी इनके दुख,  जाचकता    अकुलानी |
यह अधिकार सौंपिये औरहिं, भीख  भली मैं   जानी ||
प्रेम-प्रसंसा-बिनय-ब्यंगजुत, सुनि बिधिकी  बर बानी |
तुलसी मुदित महेस मनहिं मन, जगत-मातु मुसुकानि ||
     
 ऐसे भोलेनाथ भगवान् शंकरको जो प्रेम से नहीं भजते, वास्तव में वे शिव के तत्त्व को नहीं जानते, अतएव उनका मनुष्य जन्म लेना ही व्यर्थ है | इससे अधिक उनके लिए और क्या कहा जाय | अतएव प्रिय पाठकगणों ! आप लोगों से मेरा नम्र निवेदन है, यदि आपलोग उचित समझें तो नीचे लिखे साधनों को समझकर यथाशक्ति उन्हें काम में लानेकी चेष्टा करें—
(क) पवित्र और एकांत स्थान में गीता अध्याय ६, श्लोक १० से १४ के अनुसार भगवान्  शिवकी शरण होकर—
(१)        भगवान् शंकर के प्रेम, रहस्य, गुण और प्रभाव की अमृतमयी कथाओं का उनके तत्त्वको जाननेवाले भक्तों द्वारा श्रवण करके, मनन करना एवं स्वयं भी सतशास्त्रों को पढ़कर उनका रहस्य समझने के लिए मनन करना और उनके अनुसार आचरण करने के लिए प्राण-पर्यंत कोशिश करना |

(२)       भगवान् शिव की शान्त-मूर्ति का पूजन-वन्दनादि श्रद्धा और प्रेमसे नित्य करना |

(३)       भगवान् शंकर में अनन्य प्रेम होने के लिए विनय-भावसे रुदन करते हुए गद्गद् वाणी द्वारा स्तुति और प्रार्थना करना |

(४)       ‘ॐ नमः शिवाय’—इस मन्त्र का मनके द्वारा या श्वासों के द्वारा प्रेमभाव से गुप्त जप करना |

(५)       उपर्युक्त रहस्य को समझकर प्रभासहित यथारुचि भगवान् शिवके स्वरूपका श्रद्धा-भक्तिसहित  निष्कामभाव से ध्यान करना |

(ख)        व्यवहारकाल में—
(१)       स्वार्थ को त्यागकर प्रेमपूर्वक सबके साथ सद-व्यवहार करना |

(२)     भगवान् शिव में प्रेम होने के लिए उनकी आज्ञा के अनुसार फलाशक्ति को त्यागकर शास्त्रानुकूल यथाशक्ति यज्ञ, दान, तप, सेवा एवं वर्णाश्रम के अनुसार जीविका के कर्मों को करना |

(३)      सुख, दुःख एवं सुख-दुखकरक पदार्थों की प्राप्ति और विनाश को शंकर की इच्छा से हुआ समझकर उनमें पद-पदपर भगवान् सदाशिव की दयाका दर्शन करना |

(४)     रहस्य और प्रभाव को समझकर श्रद्धा और निष्काम प्रेमभाव से यथारुचि भगवान् शिव के स्वरूपका निरन्तर ध्यान होने के लिए चलते-फिरते, उठते-बैठते, उस शिव के नाम-जप का अभ्यास सदा-सर्वदा करना |

(५)      दुर्गुण और दुराचारको त्यागकर सद्गुण और सदाचार के उपार्जन के लिए हर समय कोशिश करते रहना |
      
     उपर्युक्त साधनों को मनुष्य कटिबद्ध होकर ज्यों-ज्यों करता जाता है, त्यों-ही-त्यों उसके अन्तःकरण की पवित्रता, रहस्य और प्रभाव का अनुभव तथा अतिशय श्रद्धा एवं विशुद्ध प्रेमकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती चली जाती है | इसलिए कटिबद्ध होकर उपर्युक्त साधनों को करने के लिए कोशिश करनी चाहिए | इन सब साधनों में भगवान् सदाशिव का प्रेमपूर्वक निरन्तर चिन्तन करना सबसे बढ़कर है | अतएव नाना प्रकार के कर्मों के बाहुल्य के कारण उसके चिन्तन में एक क्षण की भी बाधा न आवे, इसके लिए विशेष सावधान रहना चाहिए | यदि अनन्य प्रेम की प्रगाढ़ता के कारण शास्त्रानुकूल कर्मों के करनेमें कहीं कमी आती हो तो कोई हर्ज नहीं, किन्तु प्रेम में बाधा नहीं पड़नी चाहिए | क्योंकि जहाँ अनन्य प्रेम है, वहाँ भगवान् का चिंतन (ध्यान) तो निरन्तर होता ही है | और उस ध्यान के प्रभाव से पद-पद पर भगवान् की दया का अनुभव करता हुआ मनुष्य भगवान् सदाशिव के तत्त्व को यथार्थरूप से समझकर कृतकृत्य हो जाता है, अर्थात् परमपद को प्राप्त जाता है | अतएव भगवान् शिवके प्रेम और प्रभाव को समझकर उनके स्वरुप का निष्काम प्रेमभाव से निरंतर चिंतन होने के लिए प्राणपर्यंत चेष्टा करनी चाहिए |
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!