※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 11 मार्च 2013

धर्म की आवश्यकता



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन अमावस्या, सोमवार, वि०स० २०६९
*धर्म की आवश्यकता*
    वेद-शास्त्र-पुराण और सन्त-महात्माओं के वचनों और महज्जनों के आचरणों से यही सिद्ध होता है कि संसार धर्मपर ही प्रतिष्ठित है, धर्म से ही मनुष्य-जीवन की सार्थकता है, धर्म ही मनुष्य को पापों से बचाकर उन्नत जीवन में प्रवेश करवाता है, धर्मबल से ही विपत्तिपूर्ण संसार और परलोक में जीव दुःख के महार्णव से पार उतर सकता है | हिन्दू-शास्त्रकार और सन्तों ने तो इन सिद्धान्तों की बड़े जोरसे घोषणा की ही है, परन्तु अन्यान्य जातियों में भी धर्म को सदा ऊँचा स्थान मिला है | सभी ने धर्मबल से ही अपने को बलवान समझा है | अबतक सब जगह यही माना गया है कि धर्म के बिना मनुष्य का जीवन पशु-जीवन-सदृश ही हो जाता है | परन्तु अब कुछ समय से दुनिया में एक नयी हवा चली है | जहाँ धर्म को जीवन की उन्नति का एक प्रधान साधन समझा जाता था, वहाँ अब कुछ लोग धर्म को पतन का कारण बतलाने लगे हैं |

    कुछ समय पहले समाचार-पत्रों में यह प्रकाशित हुआ था कि रूस में ‘ईश्वर-विरोधी-मण्डल’ के अनुरोध से वहाँ की सोवियत यूनियन ने अपने सदस्यों को किसी भी धार्मिक कार्य में सम्मिलित न होने  लिए आज्ञापत्र निकाला है | इससे पहले ईश्वर का इस प्रकार विधिद्वारा विरोध करने की बात कहीं सुनने में नहीं आई थी | अवश्य ही पुराणों में हिरण्यकशिपू-सरीखे दैत्यों के नाम मिलते हैं, जिसने प्रह्लाद को ताड़ना दी थी | रावण-राज्यमें भी, जो अत्याचार के लिए विख्यात है, शायद ईश्वर को न मानने का कानून नहीं था, होता तो विभीषण-सदृश ईश्वरभक्त उसके राज्य में कैसे रह सकते ? यह सत्य है कि संसार में ऐसे लोग बहुत कालसे चले आते हैं, जो ईश्वर की सत्ता को स्वीकार नहीं करते, परन्तु उन लोगों ने भी धर्म का कभी विरोध नहीं किया | बड़े-बड़े अनीश्वरवादियों ने भी जगत को ऐहिक सुख पहुँचाने के लिए भी धर्म का पालन और पक्ष किया है | धर्म का स्वरुप कुछ भी हो परन्तु धर्म का पालन प्रत्येक देश और जाति में सदा से चला आता है |

    इस समय यह धर्म-विरोधी आन्दोलन केवल रूस में ही नहीं हो रहा है; यूरोप, अमेरिका, एशिया और अफ्रीका के ईसाई, मुसलमान और बौद्ध सभी में न्यूनाधिकरूप से इस प्रकार के आन्दोलन का सूत्रपात हो गया है | सबसे अधिक दुःख की बात तो यह है कि धर्म-प्राण भारतवर्ष में भी आज ईश्वर और धर्म के तत्त्व से अनभिज्ञ होने के कारण कुछ लोग यह कहने लगे हैं कि ‘धर्म ही हमारे सर्वनाश का कारण है, धर्म के कारण ही देश परतन्त्र हो रहा है, धर्म ही हमारे सर्वांगीण उत्थान में प्रधान बाधक है |’ इस प्रकार कहने और माननेवाले लोग, ईश्वर और धर्मवादियों को मूर्ख समझते हैं | उन्हें अपनी भूल समझमें नहीं आती और सहज ही इसका समझ में आना भी कठिन है, क्योंकि जब मनुष्य अपने को सर्वापेक्षा अधिक बुद्धिमान और विद्वान समझने लगता है, तब उसे अपनी राय के प्रतिकूल दूसरे की अच्छी-से-अच्छी सम्मति भी पसन्द नहीं आती | इस धर्मध्वंसकारी आन्दोलन का परिणाम क्या होगा सो कुछ भी समझ में नहीं आता, तो भी इससे शब्द, युक्ति और अनुमान-प्रमाण से यही अनुमान होता है कि इससे देश की बड़ी दुर्दशा होगी | धर्महीन मनुष्य उच्छृंखल हो जाता है और ऐसे मनुष्यों का समूह जितना अधिक बढ़ता है, उतना ही द्वेष-द्रोह का दावानल अधिक जलता है, जिससे सभी को दुःख भोगना पड़ता है | .........शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!