※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 12 मार्च 2013

धर्म की आवश्यकता



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल १, मंगलवार, वि०स० २०६९
*धर्म की आवश्यकता*
गत ब्लॉग से आगे.......धर्म ही मनुष्य को संयमी, साहसी, धीर, वीर, जितेन्द्रिय और कर्तव्यपरायण बनाता है | धर्म ही दया, अहिंसा, क्षमा, परदुख-कातरता, सेवा, सत्य और ब्रह्मचर्य का पाठ सिखाता है | मनु महाराज ने धर्म के दस लक्षण बतलाये हैं—
धृति: क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः |
धीर्विद्या   सत्यमक्रोधो   दशकं  धर्मलक्षणं ||
(६ | ९)
धृति, क्षमा, मनका निग्रह, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, निर्मल बुद्धि, विद्या, सत्य और अक्रोध—यह दस धर्म के लक्षण हैं |
    महाभारत में कहा है—
अद्रोहः सर्वभूतेषु  कर्मणा मनसा गिरा |
अनुग्रहश्च दानं च सतां धर्मः सनातनः ||
(वनपर्व २९७ | ३५)
मन, वाणी और कर्म से प्राणिमात्र के साथ अद्रोह, सबपर कृपा और दान यही साधु पुरुषों का सनातन-धर्म है |
    पद्मपुराण में धर्म के लक्षण बतलाये हैं—
ब्रह्मचर्येण        सत्येन       मखपञ्चक्वर्तनैः |
दानेन नियमैश्चापि क्षान्त्या शौचेन वल्लभ ||
अहिंसया   सुशान्त्य  च अस्तेयेनापि वर्तनै: |
एतैदर्शभिरङ्गैस्तु      धर्ममेव      प्रपूरयेत् ||
(द्वितीय खण्ड अ० १२ | ४६-४७ )
हे प्रिय ! ब्रह्मचर्य, सत्य, पञ्चमहायज्ञ, दान, नियम, क्षमा, शौच, अहिंसा, शान्ति और अस्तेय से व्यवहार करना—इन दस अंगों से धर्म की ही पूर्ति करे |

    अब बतलाईये, क्या कोई भी जाति या व्यक्ति मन और इन्द्रियों की गुलाम, विद्या-बुद्धिहीन, सत्य-क्षमा-रहित, मन, वाणी, शरीर से अपवित्र, हिंसा-परायण, अशान्त, दानरहित और परधन हरण करनेवाली होनेपर कभी सुखी या उन्नत हो सकती है ? प्रत्येक उन्नतिकामी जाति या व्यक्ति के लिए क्या धर्म के इन लक्षणों को चरित्रगत करने की नितान्त आवश्यकता नहीं है ? क्या धर्म के इन तत्त्वों से हीन  जाति कभी जगत में सुखपूर्वक टिक सकती है ? धर्म के नामतक का मूलोच्छेद चाहनेवाले सज्जन एकबार गंभीरतापूर्वक पक्षपातरहित हो यदि शान्त-चित्त से विचार करें तो उन्हें भी यह मालुम हो सकता है कि धर्म ही हमारे लोक-परलोक का एकमात्र सहायक और साथी है, धर्म मनुष्य को दुःख से निकालकर सुखकी शीतल गोदमें ले जाता है, असत्य से सत्य में ले जाता है, अन्धकारपूर्ण हृदय में अपूर्व ज्योति का प्रकाश कर देता है | धर्म ही चरित्र-संगठन में एकमात्र सहायक है | धर्मसे ही अधर्मपर विजय प्राप्त हो सकती है, धर्म ही अत्याचार का विनाशकर धर्मराज्य की स्थापना में हेतु बनता है | पाण्डवों के पास सैन्यबल की अपेक्षा धर्मबल अधिक था, इसी से वे विजयी हुए | अस्त्र-शास्त्रों से सब भांति सुसज्जित बड़ी भारी सेना के स्वामी महापराक्रमी रावण का धर्मत्याग के कारण ही अधःपतन हो गया | कंस को धर्मत्याग के कारण ही कलंकित होकर मरना पड़ा |

    महाराणा प्रताप और छत्रपति शिवाजी का नाम हिन्दू-जाति में धर्माभिमान के कारण ही अमर है | गुरु गोविन्दसिंह के पुत्रों ने धर्म के लिए ही दीवार में चुना जाना सहर्ष स्वीकार कर लिया था, मीराबाई धर्म के लिए जहर का प्याला पी गयी थी | ईसामसीह धर्म के लिए ही शूली पर चढ़े थे | भगवान् बुद्ध ने धर्म के लिए ही शरीर सुखा दिया था | युधिष्ठिर ने धर्मपालन के लिए ही कुत्ते को साथ लिए बिना अकेले सुखमय स्वर्ग में जाना अस्वीकार कर दिया था | इसी से आज इन महानुभावों के नाम अमर हो रहे हैं | धर्म जाता रहेगा तो मनुष्यों में बचेगा ही क्या ? धर्म के अभाव में पर-धन और पर-स्त्री का अपहरण करना, दीनों को दुःख पहुँचाना तथा यथेच्छाचार करना और भी सुगम हो जायेगा | सर्वथा धर्मरहित जगत की कल्पना ही विचारवान पुरुष के हृदय को हिला देती है ! .........शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!