|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल
तृतीया,गुरुवार, वि०स० २०६९
श्रीभगवान् ने साकाररूप से साक्षात् प्रकट होकर
कभी मुझे दर्शन दिए हैं, इस बात के कहने में असमर्थ होनेपर भी मैं बड़े जोर के साथ
यह विश्वास दिला सकता हूँ कि यदि कोई भगवत्परायण होकर निष्काम प्रेमभाव से भगवान्
की भक्ति करे तो उसे साक्षात् दर्शन देने के लिए भगवान् निश्चय बाध्य हैं | भगवान्
ने स्वयं कहा है कि—
भक्त्या त्वनन्या शक्य अहमेवंविधोऽर्जुन |
ज्ञातुं द्रष्टुं च तत्त्वेन
प्रवेष्टुं च परंतप
||
(गीता
११ | ५४)
‘हे अर्जुन ! अनन्य भक्ति करके तो इस प्रकार साकाररूपसे मैं प्रत्यक्ष
देखने के लिए और तत्त्व से जानने के लिए तथा प्रवेश करने के लिए अर्थात् एकीभाव से
प्राप्त होने के लिए भी शक्य हूँ |’
इससे यह सिद्ध हुआ
कि भगवान् का प्रत्यक्ष दर्शन अनन्य भक्ति से हो सकता है | अनन्य भक्ति के लिए
अभ्यास की आवश्यकता है | यदि सब समय भगवान् के नाम का जप और हृदय में उनका स्मरण
करते हुए संसार के समस्त व्यवहार उसी के अर्थ किये जायँ तो परमात्मा में अनन्य
भक्ति हो जाती है | अनन्य भक्तियुक्त पुरुष स्वयं पवित्र होता है, इसमें तो कहना
ही क्या, परन्तु वह अपने भक्ति के भावों से जगत को पवित्र कर सकता है | यदि घर में
एक भी पुरुष को अनन्य भक्ति से परमात्मा का साक्षात्कार हो जाय तो उसका समस्त कुल
पवित्र समझा जाता है | कहा है—
कुलं पवित्रं जननी कृतार्था
वसुन्धरा पुण्यवती च तेन | अपारसंवित्सुखसागरेऽस्मिन्लीनं परे
ब्रह्मणि यस्य चेतः ||
(स्कं०
पु० माहे० खं० कौ० खं० ५५ | १४०)
‘जिसका
चित्त उस अपार विज्ञानानंदघन समुद्ररूप परब्रह्म परमात्मा में लीन हो गया है उससे
कुल पवित्र, माता कृतार्थ और पृथ्वी पुण्यवती होती है |’
भगवान् नारद कहते हैं—
कंठावरोधरोमाञ्चाश्रुभिः परस्परं लपमाना: पावयन्ति कुलानि पृथिवीं च |
तीर्थिकुर्वंती तीर्थानि सुकर्मीकुर्वन्ति कर्माणि
सच्छास्त्रीकुर्वन्ति शास्त्राणि |
(नारदभक्तिसूत्र
६८-६९)
‘ऐसे भक्त कंठावरोध, रोमांचित और अश्रुयुक्त नेत्रवाले होकर परस्पर
सम्भाषण करते हुए अपने कुलों को और पृथ्वी को पवित्र करते हैं | वे तीर्थों को
सुतीर्थ और कर्मों को सुकर्म तथा शास्त्रों को सत-शास्त्र बनाते हैं, उनके भक्ति
के आवेश से वायुमंडल शुद्ध होता है, जिससे सम्बन्ध रखनेवाले सब कुछ पवित्र हो जाते
हैं और पृथ्वीपर ऐसे पुरुषों के निवास से पृथ्वी पवित्र हो जाती है | वे जिस तीर्थ
में रहते हैं वही सुतीर्थ, वे जिन कर्मों को करते हैं वे ही सत्कर्म और वे जिन
शास्त्रों का उपदेश करते हैं वे ही सत-शास्त्र बन जाते हैं |’
मोदन्ते पितरो नृत्यन्ति देवताः सनाथा चेयं भूर्भवती |
(नारदभक्तिसूत्र
७१)
‘ऐसे भक्तों को प्रकट हुए देखकर उनके पितृगण अपने उद्धार की आशा से
आह्लादित होते हैं, देवतागण उनके दर्शन कर नाचने लगते हैं, और माता पृथ्वी अपने को
सनाथ समझने लगती है |’
पद्मपुराण में भी ऐसा ही वचन है—
आस्फोटयन्ति पितरो
नृत्यन्ति च पितामहाः |
मद्वंशे वैष्णवो जातः स नस्त्राता
भविष्यति ||
पितृ-पितामहगण अपने वंश
में भगवद्भक्त प्रकट हुआ, वह हमारा उद्धार कर देगा ऐसा जानकर प्रसन्न होकर नाचने
लगते हैं और भी अनेक प्रमाण
हैं | वास्तव में ऐसे पुरुषका हृदय साक्षात् तीर्थ और उसका घर तीर्थरूप बन जाता है
| अतएव सब भाइयों को चाहिए कि वे परमात्मा की अनन्य भक्ति का साधन करें | इस साधन
में भगवान् के प्रति मन लगाना पड़ता है तथा
अपना समय भगवत-सेवा में लगाने का अभ्यास करना पड़ता है | इसके लिए यदि प्रत्येक घर
में एक-एक भगवान् की मूर्ति या चित्र रहे—मूर्ति या चित्र वही हो जो अपने मन को
रुचता हो और नित्य नियमपूर्वक उसकी पूजा की जाय तो समय और मन दोनों को ही परमात्मा
में लगाने का अभ्यास अनायास हो सकता है |.........शेष
अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!