※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 16 मार्च 2013

धर्म और उसका प्रचार



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल पञ्चमी,शनिवार, वि०स० २०६९
*धर्म और उसका प्रचार*
    इस समय संसार की प्रायः सभी जातियाँ न्यूनाधिकरूप से अपने-अपने धर्म की उन्नति और उसके प्रचार के लिए अपनी-अपनी पद्धति के अनुसार प्रयत्न कर रही हैं | इनमें से कुछ लोग तो अपने धर्मभावों का सन्देश संसार के कोने-कोने में पहुँचा देना चाहते हैं और वे इसके लिए कोई काम भी उठा नहीं रखते | क्रिश्चियन-मतका प्रचार करने के लिए ईसाई-जगत कितनी धनराशि को पानी की तरह बहा रहा है ? अमेरिका तक से करोड़ो रूपये इस कार्य के लिए भारतवर्ष में आते हैं, लाखों ईसाई स्त्री-पुरुष सुदूर देशों में जाकर भांति-भांति से लोकसेवा कर तथा लोगों को अनेक तरह से लोभ-लालच देकर, फुसलाकर और उन्हें उलटी-सीधी बात समझाकर अपने धर्मका प्रचार कर रहे हैं |

    कुछ भूले हुए लोग परधन, परस्त्री-अपहरण करने, धर्म के नाम पर हिंसा करने और परधर्मी की हत्या करने को ही धर्म मान बैठे हैं और उसी का प्रचार करना चाहते हैं | इसी प्रकार के धर्मप्रचार से चारों ओर अशान्ति  और दुःख का विस्तार होता है | अपनी बुद्धि से लोक-कल्याण के लिए जिस धर्म को अधिक उपयोगी समझा जाय, उसके प्रचार के लिए प्रयत्न करना मनुष्य का कर्तव्य है | इस न्यायसे कोई भाई यदि वास्तव में ऐसे ही शुद्ध भावसे प्रेरित होकर केवल लोक-कल्याण के लिए ही अपने धर्म का प्रचार करना चाहते हैं तो उनका यह कार्य अनुचित नहीं है, परन्तु उनके इस कार्य को देखकर हमलोगों को क्या करना चाहिए—यह विषय विचारणीय है | मेरी समझसे एक हिन्दू-धर्म ही सब प्रकारसे पूर्ण धर्म है, जिसका चरम लक्ष्य मनुष्य को संसार के त्रितापानलसे मुक्तकर उसे अनन्त सुख की शेष सीमा तक पहुँचाकर सदा के लिए आनंदमय बना देता है | इसी धर्म का पवित्र सन्देश प्राप्तकर समय-समय पर जगत के दुःखदग्ध अशान्त प्राणी परम शांति को प्राप्त हो चुके हैं और आज भी जगत के बड़े-बड़े भावुक पुरुष अत्यंत उत्सुकता के साथ इसी सन्देश की प्राप्ति के लिए लालायित हैं | जिस धर्म की इतनी अपार महिमा है, उसी अनादि कालसे प्रचलित पवित्र और गंभीर आशय धर्म को माननेवाली जाति मोहवश जगत के अन्यान्य अपूर्ण मतों का आश्रय ग्रहणकर अज्ञान-सरिता के प्रवाह में बहना चाहती है, यह बड़े ही दुःख की बात है ! .........शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!