※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 17 मार्च 2013

धर्म और उसका प्रचार



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल षष्टी,रविवार, वि०स० २०६९
*धर्म और उसका प्रचार*
गत ब्लॉग से आगे.......यदि भारत ने अपने चिरकालीन धर्म के पावन आदर्श को भूलकर ऐहिक सुखों की व्यर्थ कल्पनाओं के पीछे उन्मत्त हो केवल काल्पनिक भौतिक, स्वर्गादि सुखों को ही धर्म का ध्येय माननेवाले मतों का अनुशरण आरम्भ कर दिया तो बड़े ही अनर्थ की सम्भावना है | इस अनर्थ का सूत्रपात भी हो चला है | समय-समय पर इसके अनेक उदाहरण मिलते हैं | लोग प्रायः परमानन्द-प्राप्ति के ध्येय से च्युत होकर केवल विविध प्रकार के भोगों की प्राप्ति के प्रयत्न को ही अपना कर्तव्य समझने लगे हैं | धर्मक्षय का प्रारंभिक दुष्परिणाम देखकर भी यदि धर्मप्रेमी बन्धु धर्म-नाश से उत्पन्न होनेवाली भयानक विपत्तियों से जाति को बचाने की संतोषजनक रूपसे चेष्टा नहीं करते, यह बड़े ही परितापका विषय है !

    इस समय हमारे देश में अधिकांश लोग तो केवल धन, नाम और कीर्ति कमाने में ही अपने दुर्लभ और अमूल्य जीवन को बिता रहे हैं | कुछ सज्जन स्वराज्य और सुधार के कार्यों में लगे हैं, परन्तु उस सत्य धर्म के प्रचारक तो कोई विरले ही महात्माजन हैं | यद्यपि मान, बड़ाई और प्रतिष्ठा की कामना एवं स्वार्थपरता का परित्याग कर स्वराज्य और समाज-सुधार के लिए प्रयत्न करने से भी सच्चे सुखकी प्राप्ति में कुछ लाभ पहुँचता है, परन्तु भौतिक सुखों की चेष्टा वास्तव में परम ध्येय को भुला ही देती है | सच्चे सुख की प्राप्ति में पूरी सहायता तो उस शान्तिप्रद सत्य धर्म के प्रचार से ही मिल सकती है |.........शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!