※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 18 मार्च 2013

धर्म और उसका प्रचार



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल षष्टी,सोमवार, वि०स० २०६९
*धर्म और उसका प्रचार*
गत ब्लॉग से आगे.......यद्यपि मुझे संसार के मत-मतान्तरों का बहुत ही कम ज्ञान है, परन्तु साधारणरूप से मेरा यह विश्वास है कि सबसे उत्तम सार्वभौम धर्म वह हो सकता है जिसका लक्ष्य महान-से-महान नित्य और निर्बाधक आनन्द की प्राप्ति हो और जिसमें सबका अधिकार हो | केवल ऐहिक सुख या स्वर्ग सुख बतलानेवाला धर्म भी वास्तव में बुद्धिमान के लिए त्याज्य ही है | अतएव सर्वोत्तम धर्म वह है जो परम कल्याण की प्राप्ति करानेवाला होता है | ऐसा धर्म मेरी समझ से वह वैदिक सनातन धर्म ही है जिसका स्वरुप निम्नलिखितरुपसे शास्त्रों में कहा गया है—
अभयं        सत्त्वसंशुद्धिर्ज्ञानयोगव्यवस्थितिः |
दानं   दमश्च   यज्ञश्च   स्वाध्यायस्तप आर्जवं ||
अहिंसा   सत्यमक्रोधस्त्याग:    शान्तिरपैशुनं |
दया   भूतेष्वलोलुप्त्वं   मार्दवं   ह्रीरचापलम् ||
तेजः क्षमाः  धृतिः शौचमद्रोहो नातिमानिता |
भवन्ति   संपदं    दैवीमभिजातास्य   भारत ||
(गीता १६ | १—३)
    ‘सर्वथा भय का अभाव, अंतःकरण की अच्छी प्रकार से स्वच्छता, तत्त्वज्ञान के लिए ध्यानयोग में निरन्तर दृढ स्थिति, सात्विक दान, इन्द्रियों का दमन, भगवत्पूजा और अग्निहोत्रादि उत्तम कर्मो का आचरण, वेद-शास्त्रों के पठन-पाठनपूर्वक भगवान् के नाम और गुणों का कीर्तन, स्वधर्म-पालन के लिए कष्ट-सहन, शरीर और इन्द्रियों सहित अन्तःकरण की सरलता, मन, वाणी और शरीर से किसी प्रकार भी किसी को कष्ट न देना, यथार्थ और प्रिय-भाषण, अपना अपकार करनेवाले पर भी क्रोधका न होना, कर्मों में कर्तापन के अभिमान का त्याग, अन्तःकरण की उपरामता अर्थात् चित्तकी चंचलता का अभाव, किसी की भी निंदा आदि न करना, सब भूत-प्राणियों में हेतुरहित दया, इन्द्रियों का विषयों के साथ संयोग होनेपर भी आसक्ति का न होना, कोमलता, लोक और शास्त्र से विरुद्ध आचरण में लज्जा, व्यर्थ चेष्टाओं का अभाव, तेज, क्षमा, धैर्य, शौच अर्थात् बाहर और भीतर की शुद्धि, किसीमें भी शत्रुभावका न होना, अपनेमें पूज्यता के अभिमान का अभाव—हे अर्जुन ! दैवी सम्पदा को प्राप्त हुए पुरुष के लक्षण (ये) हैं |’

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः |
धीर्विद्या  सत्यमक्रोधो  दशकं    धर्मलक्षणं ||
(मनु० ६ | ९२)
    ‘धर्य, क्षमा, मनका निग्रह, चोरी का न करना, बाहर-भीतर की शुद्धि, इन्द्रियों का संयम, सात्त्विक बुद्धि, अध्यात्मविद्या, यथार्थ भाषण और क्रोधका न करना—धर्म के दस लक्षण हैं |’
अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः ||
(योग० २ | ३०)
‘अहिंसा, सत्यभाषण, चोरी न करना, ब्रह्मचर्य का पालन और भोग-सामग्रियों का संग्रह न करना—ये पांच प्रकार के यम हैं |’
शौचसन्तोषतपः स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः |
(योग० २ | ३२)
‘बाहर-भीतर की पवित्रता, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और सर्वस्व ईश्वर के अर्पण करना—ये पाँच प्रकार के नियम हैं |’ इन सबका निष्कामभाव से पालन करना ही सच्चा धर्माचरण है |
    यही धर्म के सर्वोत्तम लक्षण हैं, इन्हीं से परमपद की प्राप्ति होती है | अतएव जो सच्चे हृदय से मनुष्यमात्र की सेवा करना चाहते हैं, उन्हें उचित है कि वे उपर्युक्त लक्षणों से युक्त धर्मको ही उन्नति का परम साधन समझकर स्वयं उसका आचरण करें और अपने दृष्टान्त तथा युक्तियों के द्वारा इस धर्म का महत्त्व बतलाकर मनुष्यमात्र के हृदय में इसके आचरण की तीव्र अभिलाषा उत्पन्न कर दें | वास्तव में यही सच्चा धर्म-प्रचार है और इसी से लौकिक अभ्युदय के साथ-साथ देश-काल की अवधि से अतीत मुक्तिरूप परम कल्याण की प्राप्ति हो सकती है | इस स्थिति को प्राप्त करके पुरुष दुःखरूप संसारसागर में पुनः लौटकर नहीं आता | ऐसे ही पुरुषों के लिए श्रुति पुकारती है—
न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते |
(छान्दोग्य० ८ | १५ | १)
    इस परम आनन्द का नित्य और मधुर आस्वाद मनुष्यमात्र को चखाने के लिए वैदिक सनातनधर्म का प्रचार करने की चेष्टा मनुष्यमात्र को विशेषरूप से करनी चाहिए |........शेष अगले ब्लॉग में
श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!