|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल
सप्तमी ,मंगलवार, वि०स० २०६९
*धर्म और उसका प्रचार*
गत ब्लॉग से
आगे.......कुछ सज्जनों का मत है कि स्वराज्य
और विपुल धनराशि के अभाव से धर्मप्रचार नहीं हो सकता; परन्तु मेरी समझ से उनका यह
मत सर्वथा ठीक नहीं है | राजनैतिक अधिकारों की प्राप्ति से धर्म-प्रचार में सहायता
मिल सकती है, परन्तु यह बात नहीं कि स्वराज्य के अभाव में धर्मका प्रचार हो ही
नहीं सकता | धर्मपालन से बड़े-से-बड़े आत्मिक स्वराज्य मिल सकता है, तब इस साधारण
स्वराज्य की तो बात ही कौन-सी है | वह तो अनायास ही प्राप्त हो सकता है |
धन की भी धर्म
के प्रचार में आवश्यकता नहीं, सम्भव है कि इससे आंशिकरूप से कुछ सहायता मिल
जाय | इसमें प्रधान
आवश्यकता सच्चे त्यागी और धर्मज्ञ प्रचारकों की है | ऐसे पुरुष मान, बड़ाई
प्रसिद्धि और स्वार्थ को त्यागकर प्राणपण से धर्म-प्रचार के लिए कटिबद्ध हो जायँ
तो उन्हें द्रव्यादि वस्तुओं की तो कोई त्रुटि रह ही नहीं सकती; परन्तु वे
अपने प्रतिपक्षियों पर भी प्रेम से विजय प्राप्तकर उन्हें अपना मित्र बना ले सकते
हैं | केवल संख्यावृद्धि के लिए ही लोभ-लालच देकर या फुसला-धमकाकर किसी का
धर्म-परिवर्तन करना वास्तव में उसके विशेष हित का हेतु नहीं हो सकता और न ऐसे
स्वार्थयुक्त धर्म-प्रचार से प्रचारकों को ही विशेष लाभ होता है | जब मनुष्य धर्म के
महत्त्व को स्वयं भलीभांति समझकर उसका पालन करता है तभी उसे, उससे आनन्द और शान्ति
मिलती है और इस प्रकार अपूर्व आनन्द और परम
शान्ति अनुभव करके ही मनुष्य संसृति में फँसे हुए अशान्त, दुखी जीवों की दयनीय
स्थिति को देखकर करुणार्द्रचित्त से उन्हें शान्त और सुखी बनाने के लिए प्रयत्न
करते हैं, यही सच्चा धर्म-प्रचार है |
बड़े खेद की बात है कि इस अपार आनन्द के
प्रत्यक्ष सागर के होते हुए भी लोग दुखरूप संसार-सागर में मग्न हुए भीषण सन्ताप को
प्राप्त हो रहे हैं | मृगतृष्णा से परिश्रान्त और व्याकुल मृग-समूह जैसे गंगा के
तीर पर भी प्यास के मारे छटपटाकर मर जाते हैं, वही दशा इस समय हमारे इन भाइयों की
हो रही है |
सत्य धर्म के पालन से होनेवाली अपार आनन्द की
स्थिति को न समझने के कारण ही मनुष्यों की यह दशा हो रही है | अतएव ऐसे लोगों को
दयनीय समझकर उन्हें वैदिक सनातन-धर्मका तत्त्व समझाने की चेष्टा करने में उनका
उपकार और सच्चा सुधार है | इस धर्म को बतलाने वाले हमारे यहाँ अनेक ऐसे ग्रन्थ हैं
जिन सबका मनन और अनुशीलन करना कोई सहज बात नहीं | अतएव किसी
एक ऐसे ग्रन्थ का अवलम्बन करना उत्तम है, जो सरलता के साथ मनुष्य को इस पावन पथपर ला
सकता है | मेरी समझ से ऐसा पावन ग्रन्थ
‘श्रीमद्भगवद्गीता’ है | बहुत थोड़े-से सरल शब्दों में काठी-से-कठिन सिद्धान्तों को
समझानेवाला, सब प्रकार के अधिकारीयों को उनके अधिकारानुसार उपयोगी मार्ग
बतलानेवाला, सच्चे धर्मका पथप्रदर्शक, पक्षपात और स्वार्थ से रहित उपदेशों के
अपूर्व संग्रह का यह एक ही सार्वभौम महान ग्रन्थ है | जगत के अधिकांश महानुभावों
ने मुक्तकंठ से इस बात को स्वीकार किया है | गीता
में सैकड़ों ऐसे श्लोक हैं जिनमें से एक को
भी पूर्णतया धारण करनेसे मनुष्य मुक्त हो जाता है, फिर सम्पूर्ण गीता की तो बात ही
क्या है |........शेष
अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!