|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल नवमी,गुरुवार, वि०स० २०६९
*भगवान् में प्रेम होने के
उपाय*
भगवान्
के चरणों में प्रेम होने का मुख्य उपाय प्रेम होने की इच्छा ही है | जो यह चाहता
है कि मेरा भगवान् के चरणों में अनन्य प्रेम हो जाय उसका हो जायगा | लोग कहते तो हैं, परन्तु वास्तव
में नहीं चाहते | इसका पता उनकी क्रिया से लगता है | धन को चाहनेवाले रात-दिन
रुपया-रुपया करते फिरते हैं, रुपयों के लिए मारे-मारे फिरते हैं | उनकी क्रिया और
प्रयत्न यह सिद्ध कर देता है कि उनका रुपयों में प्रेम है | इसी प्रकार हमलोगों की
प्रयत्न की शिथिलता यह बतलाती है कि हम भगवान् में प्रेम कहाँ चाहते हैं | भगवान्
में प्रेम होने के कुछ उपाय इस प्रकार हैं—
(१) दृढ़ प्रयत्न करना |
(२) जिन पुरुषों का भगवान् में प्रेम है, उनका संग
करना, उनकी आज्ञानुकुल चलना और उनका अनुकरण करना |
(३) एकांत में भगवान् से गद्गदवाणी से, करुणाभाव से
रुदन करते हुए प्रभु से प्रार्थना की जाय | प्रभु के शरण होकर भगवान् में प्रेम हो
सकता है | यह भी बहुत अच्छा उपाय है |
(४) भगवान् के नाम का निरन्तर जप करने से भी प्रेम
होता है | भगवान् का भजन करने से प्रेम होता है | यह विश्वास करना बड़ा अच्छा उपाय
है |
चारों उपायों न से एक को भी काम में लाने से
प्रेम हो सकता है और चारों ही किये जायँ तो बहुत जल्दी प्रेम हो सकता है, और भी
बहुत-से उपाय शास्त्रों में बतलाये गये हैं | यह चार मुख्य हैं—
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज |
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः ||
(गीता
१८ | ६६)
इस
श्लोक के चार चरण हैं जिनमें भगवान् ने चार बातें कहीं है—
(१) सारे धर्मों का त्याग (२) मेरी शरण आ जा (३) मैं
सारे पापों से छुड़ा दूँगा (४) शोक मत कर |
ये
चार बातें सारी गीता का सार हैं, इसीलिए ये शेष में कही गयी हैं |
यह गीता का उपसंहार है | जिस विषय में उपक्रम
होता है, उसी में उपसंहार होता है | गीता में सार बात भगवान् की शरण होना ही है | भगवान् आरम्भ में ‘अशोच्यानन्वशोचस्त्वं’ और अन्त में ‘मा शुचः’ कहते हैं |
भगवान् तो सबकी बागडोर हाथ में लेने के लिए तैयार हैं | जिस समय हमारे सारे
काम भगवान् की आज्ञानुकुल होने लगें तो समझना चाहिए कि हमारी बागडोर प्रभु के हाथ
में है | सबसे
उत्तम सिद्धान्त यह है कि हम तो निमित्तमात्र हैं,
भगवान् ही सारे कर्म करा रहे हैं | उसकी पहचान यही है कि सारे कर्म भगवान् के
अनुकूल हो रहे हैं | हमलोगों को निमित्तमात्र बन जाना चाहिए | भगवान् करायें वैसे ही करना चाहिए | भगवान् विपरीत कर्म
कभी नहीं कराते |.........शेष
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—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, ‘आध्यात्मिक प्रवचन’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!