|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल
दशमी,शुक्रवार, वि०स० २०६९
*भगवान् में प्रेम होने के
उपाय*
गत
ब्लॉग से आगे.......भगवत्प्राप्त पुरुष
अपने नाम-रूप की पूजा बिलकुल नहीं चाहता | उसमें मान-बड़ाई-प्रतिष्ठा चाहने की गंध
भी नहीं होती | व्यवहार के लिए ऐसा कहते हैं—मानापमानयोस्तुल्यः |
शुकदेवजी जा रहे हैं, रास्ते में बालक धूल
फेंकते हैं, सभा में पहुँचते ही सबलोग आदर देते हैं, उनकी दोनों में समानता है | भक्तिमार्ग
से जानेवाले तथा ज्ञानमार्ग से जानेवाले दोनों में यही बात होती है | गीता अध्याय
१२ में भक्ति की तथा अध्याय १४ में ज्ञान की बात कही गयी है |
ज्ञान के मार्ग से—कीर्ति-अपकीर्ति नामकी और
सत्कार-अपमान देह का ही होता है, गुणातीत पुरुष इनसे परे होता है | देह और नाम में
उसका अहंकार ही नहीं होता, महात्माओं में ऐसा अभिमान होता ही नहीं कि यह
मेरा नाम है | दीवाल की निंदा-स्तुति से कोई दु:खी-सुखी नहीं होता, ऐसे ही भक्तों
का देह में अहंकार नहीं होता |
भक्तके अहंकार के नाश का क्रम—पहले अपने को
सबका सेवक मानता है—
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ
हनुमन्त |
मैं सेवक
सचराचर रूप स्वामि
भगवंत ||
आगे जाकर सेवक का अहंकार नाश होता है | कहता
है मैं तो कुछ भी नहीं हूँ और आगे जाकर यह भी नाश हो जाता है |
ज्ञानी के लिए भगवान् बताते हैं—
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति
|
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छाति ||
(गीता
१४ | १९)
जिस समय द्रष्टा तीनों गुणों के अतिरिक्त
अन्य किसी को कर्ता नहीं देखता और तीनों गुणों से अत्यंत परे सच्चिदानन्दघनस्वरूप
मुझ परमात्मा को तत्त्व से जानता है, उस समय वह मेरे स्वरुप को प्राप्त होता है |
सब गुणों का ही कार्य है उसका मान-अपमान से
कोई सम्बन्ध ही नहीं है | न तो वर्तमान में मान-बड़ाई चाहता है, न मरने के बाद ही
चाहता है | बिना चाहे मान आदि प्राप्त होनेपर भी यदि मनमें प्रसन्नता होती है तो
समझना चाहिए कि अभी भगवान् की प्राप्ति से दूर है | वास्तव में यह अवस्था
स्वसंवेद्य है | दूसरा अनुमान करता है वह गलत भी हो सकता है |
ज्ञानमार्ग से प्राप्त हुए योगी की दृष्टि
में सृष्टि ही नहीं है | उसको प्रतीति होती है कि संसार उसका आत्मा ही है | यदि
मेरी स्तुति आदि करके दूसरों को लाभ हो जाय तो क्या हानि है ? यह भाव जिसके
हृदय में होता है वह महात्मा ही नहीं है | महात्मा के हृदय में ऐसा कोई धर्मी
होता ही नहीं | परमात्मा को प्राप्त हुए पुरुष के लिए
ज्ञान की दृष्टि से राम, कृष्ण, अल्ला, खुदा सब उसके ही रूप हो गये, फिर जो जैसी
जिस रूपकी उपासना करता है उससे छुड़ाकर अपने नाम-रूपकी पूजा कैसे करवा सकता है ?
भक्ति के सिद्धान्त से तो पहले ही वह अपने को सेवक मानकर
चलता है | उससे अपनी पूजा आदि कैसे करवायी जा सकती है ?
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, ‘आध्यात्मिक प्रवचन’ पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!