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श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल
एकादशी,शनिवार, वि०स० २०६९
* मान-बड़ाई का त्याग *
जो उच्चकोटि के पुरुष हैं, जिन्होंने परमात्मा का तत्त्व भलीभांति जान लिया
है, वे मान-अपमान, निन्दा-स्तुति आदि को समान समझते हुए भी मान-बड़ाई, पूजा-प्रतिष्ठा
से बहुत दूर रहते हैं | क्योंकि
साधनकाल में वे इन्हें विष के समान हेय तथा आध्यात्मिक उन्नति में बाधक समझकर इनसे
बचते आये हैं और दृढ़ अभ्यास के कारण यही आचरण उनके अंदर सिद्धावस्था में भी देखा
जाता है | सिद्ध पुरुष वास्तव में तो कुछ करते नहीं; किन्तु उनके द्वारा लोक में
वैसा ही आचरण होते देखा जाता है, जैसा आचरण वे सिद्धावस्था के ठीक पहले करते रहे
हैं | सिद्धावस्था
को प्राप्त हुआ पुरुष कभी कोई ऐसा कार्य नहीं कर सकता जो संसार के लिए अनुकरणीय न
हो | स्वयं भगवान ने गीता में कहा है—
यद्ददाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः |
स यत्
प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ||
(३ | २९)
‘श्रेष्ठ पुरुष जो-जो
आचरण करते हैं, अन्य पुरुष भी वैसा–वैसा ही आचरण करते हैं | वह जो कुछ प्रमाण कर
देता है, समस्त मनुष्यसमुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है |’
ऐसे पुरुष अपने जीवनकाल में तथा मरने के बाद
भी मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा को नहीं चाहते | जो लोग उनके इस रहस्य को जानकर स्वयं भी मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा से
दूर रहते हैं, वे ही उनके सच्चे अनुयायी कहलानेयोग्य हैं | इसके विपरीत जो लोग मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा के
गुलाम हैं; किन्तु कहते हैं अपने को महात्माओं का अनुयायी, वे तो वास्तव में
महात्माओं के संग को लजानेवाले हैं | जो लोग ऐसा मानते हैं कि महात्मा लोग लौकिक
व्यवहार की दृष्टि से ही लोगों को अपनी पूजा करने से रोकते हैं, वे तो ऐसा
करनेवाले महात्माओं को एक प्रकार से दम्भी सिद्ध करते हैं | जो लोग मान, बड़ाई,
प्रतिष्ठा का त्याग इसलिए करते हैं कि ऐसा करने से लोकमर्यादा की रक्षा होती है,
किन्तु हृदय से
अपने को पुजवाना चाहते हैं, वे वास्तव में महात्मा नहीं हैं | मरने के बाद
पूजा चाहने का स्वरुप यह है कि लोग मरने के बाद उनकी कीर्ति को स्थायी रखने के
लिए, उनकी स्मृति बनाए रखने के लिए किसी स्मारक का आयोजन करें और वे लोगों के इस
विचार का समर्थन करें | यही नहीं, जो लोग अपने किसी पूज्य पुरुष के लिए इस प्रकार
के स्मारक का आयोजन करते हैं, उनके सम्बन्ध में भी ऐसी धारणा अनुचित नहीं कही जा
सकती कि वे स्वयं भी अपने लिए यही चाहते हैं कि मेरे मरने के बाद लोग मेरे लिए भी
इसी प्रकार का स्मारक बनायें |
जो कोई भी ऐसा चाहता है कि मरने के बाद लोग मेरा चित्र रखकर उसकी पूजा करें
और मेरी कीर्ति अखण्ड रहे, उसके सम्बन्ध में यह निश्चय समझ लेना चाहिए कि वह परमात्मा
के रहस्य को नहीं जानता, वह निरा अज्ञानी है | ज्ञान एवं भक्ति दोनों के ही
सिद्धान्त से हम इसी निर्णय पर पहुँचते हैं | ज्ञान के सिद्धान्त से तो एक
सच्चिदानन्द ब्रह्म के अतिरिक्त कोई दूसरी वस्तु है ही नहीं, तब कौन किसकी पूजा
करे और कौन किससे पूजा कराये | एक ही परमात्मा सर्वत्र स्थित है, वह अनन्त और सम
है; ऐसी स्थिति में अपने एकदेशीय स्वरुप की पूजा करानेवाला महात्मा कैसे समझा जाय
| यदि कोई यह समझे कि पूजा ग्रहण करने से मेरा तो कोई लाभ-हानि नहीं; परन्तु पूजा
करनेवाले को लाभ पहुँचेगा, तो वहाँ यह स्पष्ट है कि ऐसा समझनेवाला अपने को ज्ञानी
और पूजा करनेवालों को अज्ञानी समझता है | किन्तु जो अपने
को ज्ञानी और दूसरों को अज्ञानी समझता है, वह स्वयं अज्ञानी ही है | ज्ञानी के अन्दर यह भावना कदापि संभव नहीं है कि मेरी पूजा
से दूसरों को लाभ पहुंचेगा | यदि यह कहा जाय कि ऐसा माननेवाला ज्ञानी तो
नहीं हो सकता, किन्तु जिज्ञासु तो ऐसा मान सकता है, तो यह भी ठीक नहीं | अपनी पूजा से दूसरों का लाभ समझनेवाला जिज्ञासु भी नहीं हो
सकता | इस प्रकार की धारणा जिज्ञासु के अन्दर भी नहीं हो सकती | निरा अज्ञानी
ही ऐसा सोच सकता है |
यदि यह मानें कि महात्मा स्वयं तो पूजा नहीं चाहते; परन्तु लोगों की दृष्टि
से उन्हें महात्माओं की पूजा में प्रवृत्त करने के लिए वे ऐसा करते हैं, तो इसका
उत्तर यह है कि लोगों को महात्माओं की पूजा में लगाना तो ठीक है; परन्तु ऐसा करना
चाहिए अपने व्यक्तित्व को बचाकर ही | महात्माओं की पूजा का आदर्श स्थापित करने के
लिए भी अपने को पुजवाना ठीक नहीं | यदि महात्माओं की पूजा का प्रचार ही करना है तो
पहले भी तो अनेकों एक-से-एक बढ़कर महात्मा हो गये हैं और
उनसे भी बढ़कर स्वयं भगवान् के अवतार हो चुके है; उन सबको छोड़कर अपनी पूजा करवाने
की क्या आवश्यकता है |.........शेष
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—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!