※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

रविवार, 24 मार्च 2013

मान-बड़ाई का त्याग -२



|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल द्वादशी,रविवार, वि०स० २०६९
* मान-बड़ाई का त्याग *

गत ब्लॉग से आगे.......अद्वैतसिद्धान्त की दृष्टिसे देखा जाय तो आत्मा और परमात्मा एक हैं, अतः अपने से भिन्न कोई है ही नहीं | इस सिद्धान्त को माननेवाले की दृष्टि में भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्ण भी अपने ही स्वरुप हैं, अतः उनकी पूजा भी अपनी ही पूजा है | फिर उनकी पूजा से हटाकर कोई ज्ञानी महात्मा कैसे चाहेगा कि लोग मेरी पूजा करें | जो ऐसा चाहता है, वह देहाभिमानी है, ज्ञानी नहीं | ज्ञानी पुरुष को तो चाहिए कि यदि कोई दूसरा भी ऐसा करता हो तो उसे रोके, उसका विरोध करे, जिससे उसका अज्ञान दूर हो | ऐसा न करके यदि वह स्वयं अपने को पुजवाता है तो यही मानना पड़ेगा कि या तो वह अज्ञानी है, मुर्ख है या ढोंगी है, दम्भ के द्वारा अपना उल्लू सीधा करता है, मान, बड़ाई , प्रतिष्ठा का किंकर है | इसके सिवा और क्या कहा जा सकता है | फिर श्रीराम, श्रीकृष्ण आदि के स्वरुप तो नित्य एवं दिव्य हैं, हमारी तरह पाञ्चभौतिक—मायिक नहीं | और महात्माओं का शरीर तो ज्ञान की प्राप्ति हो जानेपर भी माया का कार्य होने के कारण नाशवान, क्षणभंगुर ही है | ऐसी दशा में किसी भी मनुष्य का शरीर, चाहे वह बड़े-से-बड़ा महात्मा ही क्यों न हो, भगवान् राम-कृष्णादि के अलौकिक सौन्दर्य एवं माधुर्य से पूर्ण विग्रहों की समता कैसे कर सकता है | अतः भगवान् राम-कृष्णादि के दिव्य विग्रहों की पूजा से हटाकर जो अपने नाशवान शरीर को पुजवाता है, वह वास्तव में भगवान् के तत्त्व को नहीं जानता | इसी प्रकार भगवान् के दिव्य एवं मधुर नामों से हटाकर जो अपने नाम की पूजा, अपने नामका प्रचार करवाता है वह भी ज्ञानी नहीं, अज्ञानी ही है |
    यह तो हुई ज्ञान की बात | भक्ति के द्वारा जो भगवान् को प्राप्त कर चुका है, वह भी भगवान् के स्थान पर अपने को कैसे बैठाना चाहेगा | जो ऐसा करता है, वह तो अपने को घोर अन्धकार में डालता है | यदि यह कहा जाय कि वह स्वयं तो पूजा नहीं चाहता, परन्तु कोमल स्वभाव होने के कारण वह दूसरों को पूजा करने से रोक नहीं सकता, तो इसका उत्तर यह है कि जो भक्त दूसरों को अपने साथ अनुचित व्यवहार करनेसे रोक नहीं सकता, उन्हें समझा नहीं सकता, उसकी पूजा और प्रतिष्ठा से हमें क्या लाभ हो सकता है | भगवान् को प्राप्त हुए भक्तों में तो अलौकिक शक्ति होनी चाहिए | फिर यदि कोई मनुष्य भक्त होकर भी दूसरों के द्वारा अपने प्रति किये जानेवाले पूजा-प्रतिष्ठादि को रोक नहीं सकता तो वह दूसरों का कल्याण कैसे कर सकता है | किसी महात्मा के नामपर, चाहे वह भक्ति, ज्ञान, योग—किसी भी मार्ग से पहुँचा हुआ हो, कोई अनुचित व्यवहार करे और वह उसे रोक न सके—यह असम्भव है | यदि कोई श्रीहनुमानजी को भगवान् श्रीराम के स्थान पर बिठाकर पूजना चाहे तो भक्तशिरोमणि श्रीहनुमानजी उसकी इस पूजा को कैसे स्वीकार कर सकते हैं | यदि किसी सेठकी गद्दी पर कोई उसके गुमाश्ते या मुनीम को ही सेठके रूपमें सजाकर उसका सम्मान करना चाहे और वह गुमाश्ता या मुनीम यदि स्वामिभक्त है तो वह उस सम्मान को कब स्वीकार करेगा | और यदि करता है और सेठ को इस बात का पता चल जाय तो वह अपने गुमाश्ते या मुनीम के इस व्यवहार को कैसे सहन करेगा | नमकहराम नौकर ही ऐसा कर सकता है | सच्चा स्वामिभक्त ऐसी बात कभी सोच भी नहीं सकता | यहाँ तो गुमाश्ता या मुनीम सेठ बनकर ऐसा कर भी सकता है और सेठको पता ही न चले; परन्तु भगवान् तो सर्वव्यापी एवं सर्वज्ञ ठहरे, उनसे छिपाकर कोई कुछ कर ही नहीं सकता | भगवान्-सा सजकर पूजा ग्रहण करना कोई भगवत्प्राप्त पुरुष तो कर ही नहीं सकता, भक्तिमार्ग पर चलनेवाला साधक भी ऐसा नहीं कर सकता | इस प्रकार का अवसर अनायास कभी प्राप्त भी हो जाय तो भक्त साधक ऐसी अवस्था में रोने लग जायगा, वह समझेगा कि यह तो मेरे लिए कलंक की बात होगी | बात भी सच है, ऐसा करने-करानेवाला अपने और अपने भगवान् दोनों पर कलंक लगाता है | जो भगवान् के नामपर अपने को पुजवाता है, वह भक्ति का प्रचार करना तो दूर रहा, उलटा संसार में भ्रम फैलाता है और भगवान् भी उसकी इस करतूत पर मन-ही-मन हँसते हैं |.........शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!