※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 25 मार्च 2013

मान-बड़ाई का त्याग -३


|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल त्रयोदशी,सोमवार, वि०स० २०६९
* मान-बड़ाई का त्याग *

गत ब्लॉग से आगे.......जो मनुष्य भगवान् के स्थान पर अपने को बिठाकर पूजा ग्रहण करता है, उसके प्रति स्वाभाविक ही हमारी अश्रद्धा हो जाती है | इसी प्रकार हमें भी सोचना चाहिए कि यदि हम भी ऐसा करेंगे तो लोग हमें भी घृणा की दृष्टि से देखने लग जायेंगे | तथा इस प्रकार हमलोग भी महात्माओं के प्रति श्रद्धा बढ़ाने के बदले अश्रद्धा उत्पन्न करनेमें ही सहायक बनेंगे | क्योंकि वास्तव में इस प्रकार का व्यवहार निन्दनीय ही है | सिद्ध पुरुषों के द्वारा तो स्वाभाविक ही ऐसा आचरण होगा जो साधकों के लिए लाभदायक हो | संसार में ऐसे पुरुष ही आदर्श माने जाते हैं जिनके आचरण, उपदेश, दर्शन, स्पर्श एवं सम्भाषण से दूसरों का हित हो | अच्छे पुरुषों के आचरण ही दूसरों के लिए आदर्श होते हैं | यह बात सदा याद रखनी चाहिए कि महात्माओं में अविद्याका लेश भी नहीं होता; फिर अविद्या का कार्य—मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा आदि की इच्छा—तो हो ही कैसे सकती है | स्वयं महापुरुष,जो इस तत्त्व को भलीभांति जानते हैं, इसका प्रचार एवं प्रकाश करके लोगों के अज्ञानान्धकार का नाश करते हैं | वास्तव में जो मान, बड़ाई, पूजा, प्रतिष्ठा एवं सत्कार आदि चाहते हैं अथवा सम्मति देकर लोगों से अपनी पूजा आदि करवाते हैं वे तो महामूढ़ हैं ही, किन्तु जो न तो दूसरों को अपनी पूजा करने के लिए कहता है और न पूछनेपर सम्मति देता है; परन्तु पूजा आदि मिलनेपर उसे प्रसन्न मन से स्वीकार कर लेता है, उसका विरोध नहीं करता, वह भी मूढ़ ही है | जो पूजा मिलनेसे प्रसन्न तो नहीं होता, चाहता भी नहीं कि लोग मुझे पूजें, किन्तु हृदय से पूजा-सत्कार का विरोध नहीं करता, वह भी ज्ञान और भक्ति से अभी बहुत दूर है |
    .........शेष अगले ब्लॉग में

श्रद्धेय जयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!