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श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
फाल्गुन शुक्ल
त्रयोदशी,सोमवार, वि०स० २०६९
* मान-बड़ाई का त्याग *
गत ब्लॉग से आगे.......जो
मनुष्य भगवान् के स्थान पर अपने को बिठाकर पूजा ग्रहण करता है, उसके प्रति
स्वाभाविक ही हमारी अश्रद्धा हो जाती है | इसी प्रकार हमें भी सोचना चाहिए कि यदि
हम भी ऐसा करेंगे तो लोग हमें भी घृणा की दृष्टि से देखने लग जायेंगे | तथा इस
प्रकार हमलोग भी महात्माओं के प्रति श्रद्धा बढ़ाने के बदले अश्रद्धा उत्पन्न
करनेमें ही सहायक बनेंगे | क्योंकि वास्तव में इस प्रकार का व्यवहार निन्दनीय ही
है | सिद्ध पुरुषों के द्वारा तो स्वाभाविक ही ऐसा आचरण
होगा जो साधकों के लिए लाभदायक हो | संसार में ऐसे पुरुष ही आदर्श माने
जाते हैं जिनके आचरण, उपदेश, दर्शन, स्पर्श एवं सम्भाषण से दूसरों का हित हो | अच्छे पुरुषों के आचरण ही दूसरों के लिए आदर्श होते हैं | यह
बात सदा याद रखनी चाहिए कि महात्माओं में अविद्याका लेश भी नहीं होता; फिर
अविद्या का कार्य—मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा आदि की इच्छा—तो हो ही कैसे सकती है | स्वयं
महापुरुष,जो इस तत्त्व को भलीभांति जानते हैं, इसका प्रचार एवं प्रकाश करके लोगों
के अज्ञानान्धकार का नाश करते हैं | वास्तव में जो मान, बड़ाई, पूजा, प्रतिष्ठा एवं
सत्कार आदि चाहते हैं अथवा सम्मति देकर लोगों से अपनी पूजा आदि करवाते हैं वे तो
महामूढ़ हैं ही, किन्तु जो न तो दूसरों को अपनी पूजा करने के लिए कहता है और न पूछनेपर
सम्मति देता है; परन्तु पूजा आदि मिलनेपर उसे प्रसन्न
मन से स्वीकार कर लेता है, उसका विरोध नहीं करता, वह भी मूढ़ ही है | जो
पूजा मिलनेसे प्रसन्न तो नहीं होता, चाहता भी नहीं कि लोग मुझे पूजें, किन्तु हृदय
से पूजा-सत्कार का विरोध नहीं करता, वह भी ज्ञान और भक्ति से अभी बहुत दूर है |
.........शेष
अगले ब्लॉग में
—श्रद्धेय जयदयाल
गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!