|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र शुक्ल, षष्टी, मंगलवार, वि० स० २०७०
* अपने निकट सम्बन्धीका दोष सहसा नहीं कहना चहिये, कहने से उसको दुःख हो सकता है; जिससे उसका सुधार सम्भव नहीं ।
* यदि कहीं किन्हींसे काम लेना हो तो उनको अपने पास न
बुलाकर उन्ही के पास जाना चाहिये ।
* सादगी से रहना चाहिये ।
* स्वावलम्बी बनना चाहिये ।
* जीवन को अधिक खर्चीला नहीं बनाना चाहिये । ऋषि-मुनियों
का जीवन खर्चीला नहीं था । अधिक खर्चीला जीवन मनुष्य को रुपयों और दूसरे पुरुषों
का दास बना देता है, जिसके कारण अनेक पाप करने पड़ते हैं और दर-दर भटकना पड़ता है ।
* शरीर निर्वाह के लिए भी अनासक्तभावसे ही पदार्थों का
उपयोग करना चहिये ।
* भोजन के समय स्वाद की और ध्यान नहीं देना चाहिये;क्योंकि
यह पतन का हेतु है । स्वास्थ्य की ओर लक्ष्य रखना भी
वैराग्य में कमी ही है ।
* कल्याणकामी पुरुष को तो वैराग्ययुक्त चित्त से केवल शरीर
निर्वाहके लिए ही भोजन करना चाहिये ।
* व्यवहार के समय भजन –ध्यान में मुख्य वृत्ति और संसारी
कामों में गौण वृत्ति रखनी चहिये ।
* सोते समय भी भगवान् के नाम, रूपका स्मरण विशेषतासे करना
चाहिए, जिससे शयन का समय व्यर्थ न जाय । शयनके समय को साधन बनाने के लिए सांसारिक
संकल्पोंके प्रवाहको भुलाकर भगवान् के नाम,रूप,गुण,प्रभाव, चरित्रका चिंतन करते
हुए ही सोना चाहिए ।
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, सत्संग की कुछ सार बातें पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!