※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 23 अप्रैल 2013

सत्संग की कुछ सार बातें -९ -


|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र शुक्ल, द्वादशी,  मंगलवारवि० स० २०७०

संसार के किसी भी प्रदार्थ से आसक्ति नहीं करनी चाहिये; क्योंकि आसक्ति होने से अन्तकाल में उसका संकल्प हो सकता है । संकल्प होनेपर जन्म लेना पड़ता है ।

सत्ता और आसक्ति को लेकर जो स्फुरणा होती है, उसी का नाम संकल्प है ।

महात्मा पुरुषों का पुनर्जन्म नहीं होता; क्योंकि उनके हृदय में किसी प्रकार का भी किंचिन्मात्र संकल्प रहता ही नहीं । प्रारब्धके अनुसार केवल स्फुरणा होती है , जो कि सत्ता और आसक्ति का अभाव होने के कारण जन्म देनेवाली नही है तथा कार्य की की सिद्धि या अशिद्धि में उनके हर्ष-शोकादि कोई भी विकार लेशमात्र भी नहीं होते । यही संकल्प और स्फुरणा का भेद है ।

आसक्ति वाले पुरुषके मनके अनुकूल होने पर राग और हर्ष तथा प्रतिकूल होने पर द्वेष और दुःख होता है ।

निन्दा-स्तुति सुनकर जरा भी हर्ष-शोक, राग-द्वेष आदि विकार नहीं होने चाहिये ।

कल्याणकामी पुरुष को उचित है कि मान और किर्तिको कलंक के सामान समझे ।
 हर समय संसार और शरीर को कालके मुख में देखे ।

मरुभूमि में जल दीखता है, वास्तव में है नहीं । अत: कोई भी समझदार मनुष्य प्यासा होते हुए भी वहाँ जलके लिये नहीं जाता । इसी प्रकार संसार के विषयों में भी सुख प्रतीत होता है, वास्तव में है नहीं । ऐसा जाननेवाले विरक्त विवेकी पुरुष की सुख के लिये उसमे कभी प्रवृत्ति नहीं होती ।

जीवन्मुक्त, ज्ञानी महात्माओं की दृष्टि में संसार स्वप्नवत है । इसलिये वे संसार में रहकर भी संसार के भोगों में लिप्त नहीं होते ।

जीते हुए ही जो शरीर को मुर्दे के सामान समझता है, वही मनुष्य जीवन्मुक्त है । अर्थात् जैसे प्राणरहित होने पर शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं रहता, वैसे ही प्राण रहते हुए भी जिनका शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं, वही जीवन्मुक्त महाविदेही है ।

श्रद्धेय जयदयाल जी गोयन्दका-सेठजी , सत्संग की कुछ सार बातें पुस्तकसेगीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!