|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
चैत्र शुक्ल, द्वादशी, मंगलवार, वि० स० २०७०
संसार
के किसी भी प्रदार्थ से आसक्ति नहीं करनी चाहिये; क्योंकि आसक्ति होने से अन्तकाल में उसका संकल्प हो
सकता है । संकल्प होनेपर जन्म लेना पड़ता है ।
सत्ता और
आसक्ति को लेकर जो स्फुरणा होती है, उसी का नाम संकल्प है ।
महात्मा
पुरुषों का पुनर्जन्म नहीं होता; क्योंकि उनके हृदय में किसी प्रकार का भी किंचिन्मात्र संकल्प रहता ही
नहीं । प्रारब्धके अनुसार केवल स्फुरणा होती है , जो कि सत्ता और आसक्ति का अभाव
होने के कारण जन्म देनेवाली नही है तथा कार्य की की सिद्धि या अशिद्धि में उनके
हर्ष-शोकादि कोई भी विकार लेशमात्र भी नहीं होते । यही संकल्प और स्फुरणा का भेद
है ।
आसक्ति
वाले पुरुषके मनके अनुकूल होने पर राग और हर्ष तथा प्रतिकूल होने पर द्वेष और दुःख
होता है ।
निन्दा-स्तुति सुनकर जरा भी हर्ष-शोक, राग-द्वेष आदि विकार नहीं होने चाहिये
।
कल्याणकामी
पुरुष को उचित है कि मान और किर्तिको कलंक के सामान समझे ।
हर समय संसार और शरीर को कालके मुख में देखे ।
मरुभूमि
में जल दीखता है, वास्तव में है नहीं । अत: कोई भी समझदार मनुष्य प्यासा होते हुए
भी वहाँ जलके लिये नहीं जाता । इसी प्रकार संसार के
विषयों में भी सुख प्रतीत होता है, वास्तव में है नहीं । ऐसा जाननेवाले
विरक्त विवेकी पुरुष की सुख के लिये उसमे कभी प्रवृत्ति नहीं होती ।
जीवन्मुक्त,
ज्ञानी महात्माओं की दृष्टि में संसार स्वप्नवत है । इसलिये
वे संसार में रहकर भी संसार के भोगों में लिप्त नहीं होते ।
जीते हुए
ही जो शरीर को मुर्दे के सामान समझता है, वही मनुष्य जीवन्मुक्त है । अर्थात् जैसे
प्राणरहित होने पर शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं रहता, वैसे ही प्राण रहते हुए भी
जिनका शरीर से कोई सम्बन्ध नहीं, वही जीवन्मुक्त महाविदेही है ।
—श्रद्धेय जयदयाल जी गोयन्दका-सेठजी , सत्संग की कुछ सार बातें पुस्तकसे, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!