|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
वैशाख शुक्ल, द्वादशी, बुधवार, वि० स० २०७०
गत
ब्लॉग से आगे...साधक-विरह की
व्याकुलता से निराशा भी तो हो सकती है ?
भगवान-कह ही चुका हूँ की ऐसे पुरुषों के लिए फिर दर्शन देने
की आवश्यकता ही क्या है?
साधक-फिर ऐसे पुरुषों को आपके दर्शन के लिए क्या करना
चाहिये ?
भगवान-जिस किसी प्रकार से मुझमे श्रद्धा और प्रेम की वृद्धि
हो ऐसी कोशिश करनी चाहिये |
साधक-क्या बिना श्रद्धा और प्रेम के दर्शन हो ही नहीं सकते
|
भगवान-हाँ ! नहीं हो सकते यह नीति है |
साधक-क्या आप रियायत नहीं कर सकते ?
भगवान-किसी पर रियायत की जाय और किसी पर नहीं की जाय तो
विषमता का दोष आता है | सब पर रियायत हो नहीं सकती |
साधक-क्या ऐसी रियायत कभी हो भी सकती है ?
भगवान-हाँ, अन्तकाल के लिए ऐसी रियायत है | उस समय बिना
श्रद्धा और प्रेम के भी केवल मेरा स्मरण करनेसे ही मेरी प्राप्ति हो जाती है |
साधक-फिर उसके लिए भी यह विशेष रियायत क्यों रखी गयी है ?
भगवान-उसका जीवन समाप्त हो रहा है | सदा के वास्ते वह इस
मनुष्य-शरीर का त्याग कर रहा है | इसलिए उसके वास्ते यह खास रियायत रखी गयी है |
साधक-यह तो उचित ही है की अन्तकाल के लिए यह विशेष रियायत
रखी गयी है | क्नितु अन्त समय में मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ अपने काबू में नहीं
रहते; अतएव उस समय आपका स्मरण करना भी वश की बात नहीं है |
भगवान-इसके लिए सर्वदा मेरा स्मरण रखने का अभ्यास करना
चाहिये | जो ऐसा अभ्यास करेगा उसको मेरी स्मृति अवश्य होगी |....शेष अगले ब्लॉग
में .
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!