※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

मंगलवार, 21 मई 2013

ध्यानावस्था में प्रभु से वार्तालाप -३-


      || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख शुक्ल, एकादशी, मंगलवार, वि० स० २०७०

 

  गत ब्लॉग से आगे...साधक-प्रभो ! मुझे वैसा ही मानना चाहिये जैसा आप कहते है किन्तु मन बड़ा पाजी है | वह मानने नहीं देगा | आप कहते है की बात सही है फिर भी मुझे तो यही प्रिय लगता है की मैं बुलाऊँ और तुरन्त आप आ जायँ | यह बतलाइये वह कौन-सी पुकार के साथ आप आ सकते है |

भगवान-गोपियों की भाँती जब साधक मेरे लिए तड़पता है तब वैसे आ सकता हूँ या मुझमे प्रेम और विश्वास करके द्रौपदी और गजेन्द्र की भाँती जब आतुरता से व्याकुल होकर पुकारता है तब आ सकता हूँ | अथवा प्रह्लाद के सद्र्श निस्कामभाव से भजने वाले के लिए बिना बुलायें भी आ सकता हूँ |

साधक-विरह से व्याकुल करके आते है यह आपकी कैसी आदत है? आप विरह की वेदना देकर क्यों तडपाते है |

भगवान-विरहजनित व्याकुलता की तो बड़े दर्जे की स्थिति है | विरह व्याकुलता से प्रेम की वृद्धि होती है | फिर भक्त क्षणभर का भी वियोग सहन नहीं कर सकता | उसको सदा के लिए मेरी प्राप्ति हो जाती है | एक दफा मिलने के बाद फिर कभी छोड़ता नहीं | जैसे भरत चौदह सालतक विरह से व्याकुल रहा, फिर मेरा उसने कभी साथ नहीं छोड़ा |

साधक-आपको कभी कार्य होता तो आप प्राय: लक्ष्मण या शत्रुघन को ही सुपुर्द कर देते, भरत को नहीं | इसका क्या कारण था |

भगवान-प्रेम की अधिकता के कारण भारत मेरा वियोग सहन नहीं कर सकता था |

साधक-फिर उसने चौदह साल तक वियोग कैसे सहन किया |

भगवान-जब मेरी आज्ञा से बाध्य होकर उसको वियोग सहन करना पड़ा  और उसी विरह में प्रेम की इतनी वृद्धि हुई की फिर उसका मुझसे कभी वियोग नहीं हुआ |

साधक-पर उस विरह में आपने उस भरत का क्या हित सोचा |

भगवान-चौदह साल का विरह सहन करने से वह विरह और मिलन के  तत्व को जान गया | फिर एक क्षण भर का वियोग भी उसको एक युग के समान प्रतीत होने लगा | यदि ऐसा नहीं होता तो मेरी और इतना आकर्षण कैसे होता |....शेष अगले ब्लॉग में .    

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!