|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
वैशाख शुक्ल, एकादशी, मंगलवार, वि० स० २०७०
गत
ब्लॉग से आगे...साधक-प्रभो !
मुझे वैसा ही मानना चाहिये जैसा आप कहते है किन्तु मन बड़ा पाजी है | वह मानने नहीं
देगा | आप कहते है की बात सही है फिर भी मुझे तो यही प्रिय लगता है की मैं बुलाऊँ
और तुरन्त आप आ जायँ | यह बतलाइये वह कौन-सी पुकार के साथ आप आ सकते है |
भगवान-गोपियों की भाँती जब साधक मेरे लिए तड़पता है तब वैसे
आ सकता हूँ या मुझमे प्रेम और विश्वास करके द्रौपदी और गजेन्द्र की भाँती जब
आतुरता से व्याकुल होकर पुकारता है तब आ सकता हूँ | अथवा प्रह्लाद के सद्र्श
निस्कामभाव से भजने वाले के लिए बिना बुलायें भी आ सकता हूँ |
साधक-विरह से व्याकुल करके आते है यह आपकी कैसी आदत है? आप
विरह की वेदना देकर क्यों तडपाते है |
भगवान-विरहजनित व्याकुलता की तो बड़े दर्जे की स्थिति है |
विरह व्याकुलता से प्रेम की वृद्धि होती है | फिर भक्त क्षणभर का भी वियोग सहन
नहीं कर सकता | उसको सदा के लिए मेरी प्राप्ति हो जाती है | एक दफा मिलने के बाद
फिर कभी छोड़ता नहीं | जैसे भरत चौदह सालतक विरह से व्याकुल रहा, फिर मेरा उसने कभी
साथ नहीं छोड़ा |
साधक-आपको कभी कार्य होता तो आप प्राय: लक्ष्मण या शत्रुघन
को ही सुपुर्द कर देते, भरत को नहीं | इसका क्या कारण था |
भगवान-प्रेम की अधिकता के कारण भारत मेरा वियोग सहन नहीं कर
सकता था |
साधक-फिर उसने चौदह साल तक वियोग कैसे सहन किया |
भगवान-जब मेरी आज्ञा से बाध्य होकर उसको वियोग सहन करना
पड़ा और उसी विरह में प्रेम की इतनी वृद्धि
हुई की फिर उसका मुझसे कभी वियोग नहीं हुआ |
साधक-पर उस विरह में आपने उस भरत का क्या हित सोचा |
भगवान-चौदह साल का विरह सहन करने से वह विरह और मिलन
के तत्व को जान गया | फिर एक क्षण भर का
वियोग भी उसको एक युग के समान प्रतीत होने लगा | यदि ऐसा नहीं होता तो मेरी और
इतना आकर्षण कैसे होता |....शेष अगले ब्लॉग में .
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!