|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
वैशाख शुक्ल, चतुर्दशी, शुक्रवार,
वि० स० २०७०
गत
ब्लॉग से आगे...साधक-प्रभो !
आप सत्संग की इतनी महिमा क्यों करते है ?
भगवान-बिना सत्संग के न तो भजन, ध्यान, सेवादीका साधन ही
होता है और न मुझमे अनन्य प्रेम ही हो सकता है | इसके बिना मेरी प्राप्ति होना
कठिन है | इसी से मैं सत्संग की इतनी महिमा कहता हूँ |
साधक-प्रभो ! बतलाइये, सत्संग के लिए क्या उपाय किया जाय ?
भगवान-पहले मैं इसका उपाय बतला चुका हूँ की श्रद्धा और
प्रेमपूर्वक सत्संग के लिए कोशिश करने पर मेरी कृपा से सत्संग मिल सकता है |
साधक-अब मैं सत्संग के लिए और भी विशेष कोशिश करूँगा | आपसे
भी निष्काम प्रेमभाव से भजन-ध्यान निरन्तर होने के लिए मदद मांगता हूँ |
भगवान-तुम अपनी बुद्धि के अनुसार ठीक मांग रहे हो, किन्तु
वह तुम्हारे मन को उतना अच्छा नहीं लगता
जितना की विषयभोग लगते है |
साधक-हाँ ! बुद्धि से तो मैं चाहता हूँ, पर मन बड़ा ही पाजी
है, इससे रूचि कम होने के कारण उसको भजन-ध्यान अच्छा न लगे तो उसके आगे मैं लाचार
हूँ | इसलिए ही आपको विशेष मदद करनी चाहिये |
भगवान-मन की भजन-ध्यान की और कम रुचि हो तो भी यही कोशिश
करते रहों की वह भजन-ध्यान में लगा रहे | धीरे-धीरे उसमे रुचि होकर भजन ठीक हो
सकता है |
साधक-मैं शक्ति के अनुसार कोशिश करता रहा हूँ किन्तु अभी तक
सन्तोषजनक काम नहीं बना | इसी से उत्साह भंग-सा होता है | यही विश्वास है की आपकी
दया से ही यह काम हो सकता है | अतएव आपको विशेष दया करनी चाहिये |
भगवान-उसाहहीन नहीं होना चाहिये | मेरे ऊपर भार डालने से सब
कुछ हो सकता है | यह तो ठीक है, किन्तु मेरी आज्ञा के अनुसार कटिबद्ध होकर चलने की
भी तो तुम्हे कोशिश करनी ही चाहिये | ऐसा मत मानो ही हमने सब कोशीश कर ली, अभी
कोशिश करने में बहुत कमी है | तुम्हारी शक्ति के अनुसार अभी कोशिश नहीं हुई है |
इसलिए खूब तत्परता से कोशिश करनी चाहिये |....शेष अगले ब्लॉग में .
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!