※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 25 मई 2013

ध्यानावस्था में प्रभु से वार्तालाप -७-


        || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

वैशाख शुक्ल, पूर्णिमा, शनिवार, वि० स० २०७०

 

  गत ब्लॉग से आगे... साधक-आपका आश्रय लेकर और कोशिश करने की चेष्टा करूँगा; किन्तु काम तो आपकी दयासे ही होगा |

भगवान-यह तो तुम्हारे प्रेम की बात है की तुम मुझ पर विश्वाश रखते हों | किन्तु सावधान रहना की भूल से कहीं हरामीपन न आ जाये | मैं कहता हूँ की तुम्हे उत्साह बढ़ाना चाहिये | जब मेरा यह कहना है तो तुम्हारे उत्साह में कमी होने का कोई कारण नहीं है | केवल मन ही तुम्हे धोखा दे रहा है | उत्साहभंग की बात मन में आने ही मत दो, हमेशा उत्साह रखों |

साधक-शान्ति और प्रसन्नता न मिलने पर मेरा उत्साह ढीला पड़ जाता है |

भगवान-जब तुम मुझ पर भरोसा रखते हो तो फिर कार्य की सफलता की और क्यों ध्यान देते हों ? वह भी तो कामना ही है |

साधक-कामना तो है किन्तु वह है तो केवल भजन-ध्यान की वृद्धि के लिए ही |

भगवान-जब तुम हमारी शरण आ गए हो तो भजन-ध्यान की वृद्धि के लिए शान्ति और प्रसन्नता की तुम्हे चिंता क्यों है ?  तुझे तो मेरे आज्ञा पालन पर ही विशेष ध्यान रखना चाहिये | कार्य के फल पर नहीं |

साधक-कार्य सफल न होने से उत्साहभंग होगा और उत्साह-भंग होने भजन-ध्यान नहीं बनेगा |

भगवान-यह तो ठीक है, किन्तु सफलता की कमी देखकर भी उत्साह में कमी नहीं होनी चाहिये | मुझ पर विश्वास करके उतरोतर मेरी आज्ञा से उत्साह बढ़ाना चाहिये |

साधक-यह बात तो ठीक और युक्तिसंगत है, किन्तु फिर भी शान्ति और प्रसन्नता न मिलने पर उत्साह में कमी आ ही जाती है |

भगवान-ऐसा होता है तो तुमने फिर मेरी बात पर कहाँ ध्यान दिया ? इसमें तो केवल तुम्हारे मन का धोखा है |

साधक-क्या इसमें मेरे सन्च्चित पाप कारण नहीं है ? क्या वे मेरे उत्साह में बाधा नहीं डाल रहे है |

भगवान-मेरी शरण हो जाने पर पाप रहते ही नहीं |

साधक-यह मैं जानता हूँ किन्तु मैं वास्तव में आपकी पूर्णतया शरण कहाँ हुआ हूँ ? अभीतक तो केवल वचन मात्र से ही मैं आपकी शरण हूँ |

भगवान-वचनमात्र से भी जो एक बार मेरी शरण आ जाता है उसका भी मैं परित्याग नहीं करता | किन्तु तुम्हे तो तुम्हारा जैसा भाव है उसके अनुसार मेरे शरण होने के लिए खूब कोशिश करनी चाहिये |....शेष अगले ब्लॉग में .    

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!