※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 27 मई 2013

ध्यानावस्था में प्रभु से वार्तालाप -९-


        || श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, तृतीया, सोमवार, वि० स० २०७०

 

  गत ब्लॉग से आगे...साधक-भगवन् ! अब यह बतलाइये की आप प्रत्यक्ष दर्शन कब देंगे ?

भगवान-इसके लिए तुम चिंता क्यों करते हों ? जब हम ठीक समझेंगे उसी वक्त दे देंगे | वैध जब ठीक समझता है तब आप ही सोचकर रोगी को अन्न देता है | रोगी को तो वैध पर ही निर्भर रहना चाहिये |

साधक-आपका कथन ठीक है ! रोगी को भूख लगती है तो वह ‘मुझे अन्न कब मिलेगा’ ऐसा कहता ही है |

भगवान-वैध जानता ही की रोगी की भूख सच्ची है या झूठी | भूक देखकर भी यदि वैधरोगी को अन्न नहीं देता तो उस न देने में भी उसका हित ही है |

साधक-ठीक है, किन्तु आपके दर्शन न देने में क्या हित है यह मैं नहीं समझता | मुझे तो दर्शन देने में ही हित दीखता है | रोटी से तो नुकसान भी हो सकता है किन्तु आपके दर्शन स कभी नुकसान नहीं हो सकता बल्कि परम लाभ होता है, इसलिये आपका मिलना रोटी मिलने के सद्रष नहीं है |

भगवान-वैध जब जिस चीज के देने में सुधार होना मालूम पडता है उसी को उचित समय पर रोगी को देता है | इसमें तो रोगी को वैध पर ही निर्भर रहना चाहिये | वैध सच्ची भूख समझकर रोगी को रोटी देता है और उससे नुकसान भी नहीं होता | यदपि मेरा मिलना परम लाभदायक है किन्तु मुझमे पूर्ण प्रेम और श्रद्धारूप सच्ची भूख के बिना मेरा दर्शन नहीं हो सकता |

साधक-श्रद्धा और प्रेम की मुझमे बहुत कमी है और मुझमे उसकी पूर्ती होनी भी बहुत ही कठिन प्रतीत होती है | अतएव मेरे लिए तो आपके दर्शन असाध्य नहीं तो कष्टसाध्य जरुर है |

भगवान-ऐसा माना तुम्हारी बड़ी भूल है, ऐसा मानने से ही तो दर्शन होनें में विलम्ब होता है |....शेष अगले ब्लॉग में .    

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!