|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ कृष्ण, तृतीया, सोमवार, वि० स० २०७०
गत
ब्लॉग से आगे...साधक-भगवन् !
अब यह बतलाइये की आप प्रत्यक्ष दर्शन कब देंगे ?
भगवान-इसके लिए तुम चिंता क्यों करते हों ? जब हम ठीक
समझेंगे उसी वक्त दे देंगे | वैध जब ठीक समझता है तब आप ही सोचकर रोगी को अन्न
देता है | रोगी को तो वैध पर ही निर्भर रहना चाहिये |
साधक-आपका कथन ठीक है ! रोगी को भूख लगती है तो वह ‘मुझे
अन्न कब मिलेगा’ ऐसा कहता ही है |
भगवान-वैध जानता ही की रोगी की भूख सच्ची है या झूठी | भूक
देखकर भी यदि वैधरोगी को अन्न नहीं देता तो उस न देने में भी उसका हित ही है |
साधक-ठीक है, किन्तु आपके दर्शन न देने में क्या हित है यह
मैं नहीं समझता | मुझे तो दर्शन देने में ही हित दीखता है | रोटी से तो नुकसान भी
हो सकता है किन्तु आपके दर्शन स कभी नुकसान नहीं हो सकता बल्कि परम लाभ होता है,
इसलिये आपका मिलना रोटी मिलने के सद्रष नहीं है |
भगवान-वैध जब जिस चीज के देने में सुधार होना मालूम पडता है
उसी को उचित समय पर रोगी को देता है | इसमें तो रोगी को वैध पर ही निर्भर रहना
चाहिये | वैध सच्ची भूख समझकर रोगी को रोटी देता है और उससे नुकसान भी नहीं होता |
यदपि मेरा मिलना परम लाभदायक है किन्तु मुझमे पूर्ण प्रेम और श्रद्धारूप सच्ची भूख
के बिना मेरा दर्शन नहीं हो सकता |
साधक-श्रद्धा और प्रेम की मुझमे बहुत कमी है और मुझमे उसकी
पूर्ती होनी भी बहुत ही कठिन प्रतीत होती है | अतएव मेरे लिए तो आपके दर्शन असाध्य
नहीं तो कष्टसाध्य जरुर है |
भगवान-ऐसा माना तुम्हारी बड़ी भूल है, ऐसा मानने से ही तो
दर्शन होनें में विलम्ब होता है |....शेष अगले ब्लॉग में .
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!