※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 30 मई 2013

ध्यानावस्था में प्रभु से वार्तालाप -१२-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण,षष्ठी, गुरूवार, वि० स० २०७०

 

  गत ब्लॉग से आगे...साधक-फिर आपकी आज्ञा का अक्षरश: पालन न होने में क्या कारण है |

भगवान-सन्च्चित पाप एवं राग, द्वेष, काम, क्रोधादि दुर्गुण ही बाधा डालने में हेतु है |

साधक-इनका नाश कैसे हों ?

भगवान-यह तो पहले ही बतला चुका हूँ, भजन, ध्यान, सेवा, सत्संग आदि साधनों से होगा |

साधक-इसके लिए अब और भी विशेषरूप से कोशिश करने की चेष्टा करूंगा | किन्तु यह भी तो आपकी मदद से ही होगा |

भगवान-मदद तो मुझसे चाहों जितनी ही मिल सकती है |

साधक-प्रभों ! कोई-कोई कहते है की प्रभु के प्रत्यक्ष दर्शन ज्ञानचक्षु से होते है, चर्मचक्षु से नहीं, सो क्या बात है ?

भगवान-उनका कहना ठीक नहीं है | भक्त जिस प्रकार मेरा दर्शन चाहता है उसको मैं उसी प्रकार दर्शन दे सकता हूँ |

साधक- आपका विग्रह तो दिव्य है फिर चर्म चक्षु से उसके दर्शन कैसे हो सकते है ?

भगवान-मेरे अनुग्रह से | मैं उसको ऐसी शक्ति प्रदान कर देता हूँ जिसके आश्रय से वह चर्म चक्षु के द्वारा भी मेरे दिव्य स्वरूप का दर्शन कर सकता है |

साधक-जहाँ आप साकारस्वरूप से प्रगट होते है वहाँ जितने मनुष्य रहते है उन सबको दर्शन देते है या उनमे से किसी एकदो को ?

भगवान-मैं जैसा चाहता हूँ वैसा ही हो सकता है |

साधक-चर्मदृष्टि तो सबकी समान है फिर किसी को दर्शन होते है और किसी को नहीं, यह कैसे ?

भगवान-इसमें कोई आश्चर्य नहीं | एक योगी भी अपनी योगशक्ति से ऐसा काम कर सकता है की बहुतों के सामने प्रगटहोकर भी किसी के दृष्टिगोचर हो और किसी के नहीं |

साधक-जब आप सबके दृष्टीगोचर होते है तब सबको एक ही प्रकार से दीखते है या भिन्न-भिन्न प्रकार से ?

भगवान-एक प्रकार से भी दीख सकता हूँ और भिन्न-भिन्न प्रकार से भी | जो जैसा पात्र होता है अर्थात मुझमे जिसकी जैसा भावना, प्रीति और श्रद्धा होती है उसको मैं उसी प्रकार दीखाई देता हूँ |....शेष अगले ब्लॉग में .    

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!