|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ कृष्ण,षष्ठी, गुरूवार, वि० स० २०७०
गत
ब्लॉग से आगे...साधक-फिर आपकी
आज्ञा का अक्षरश: पालन न होने में क्या कारण है |
भगवान-सन्च्चित पाप एवं राग, द्वेष, काम, क्रोधादि दुर्गुण
ही बाधा डालने में हेतु है |
साधक-इनका नाश कैसे हों ?
भगवान-यह तो पहले ही बतला चुका हूँ, भजन, ध्यान, सेवा,
सत्संग आदि साधनों से होगा |
साधक-इसके लिए अब और भी विशेषरूप से कोशिश करने की चेष्टा
करूंगा | किन्तु यह भी तो आपकी मदद से ही होगा |
भगवान-मदद तो मुझसे चाहों जितनी ही मिल सकती है |
साधक-प्रभों ! कोई-कोई कहते है की प्रभु के प्रत्यक्ष दर्शन
ज्ञानचक्षु से होते है, चर्मचक्षु से नहीं, सो क्या बात है ?
भगवान-उनका कहना ठीक नहीं है | भक्त जिस प्रकार मेरा दर्शन
चाहता है उसको मैं उसी प्रकार दर्शन दे सकता हूँ |
साधक- आपका विग्रह तो दिव्य है फिर चर्म चक्षु से उसके
दर्शन कैसे हो सकते है ?
भगवान-मेरे अनुग्रह से | मैं उसको ऐसी शक्ति प्रदान कर देता
हूँ जिसके आश्रय से वह चर्म चक्षु के द्वारा भी मेरे दिव्य स्वरूप का दर्शन कर
सकता है |
साधक-जहाँ आप साकारस्वरूप से प्रगट होते है वहाँ जितने
मनुष्य रहते है उन सबको दर्शन देते है या उनमे से किसी एकदो को ?
भगवान-मैं जैसा चाहता हूँ वैसा ही हो सकता है |
साधक-चर्मदृष्टि तो सबकी समान है फिर किसी को दर्शन होते है
और किसी को नहीं, यह कैसे ?
भगवान-इसमें कोई आश्चर्य नहीं | एक योगी भी अपनी योगशक्ति
से ऐसा काम कर सकता है की बहुतों के सामने प्रगटहोकर भी किसी के दृष्टिगोचर हो और
किसी के नहीं |
साधक-जब आप सबके दृष्टीगोचर होते है तब सबको एक ही प्रकार
से दीखते है या भिन्न-भिन्न प्रकार से ?
भगवान-एक प्रकार से भी दीख सकता हूँ और भिन्न-भिन्न प्रकार
से भी | जो जैसा पात्र होता है अर्थात मुझमे जिसकी जैसा भावना, प्रीति और श्रद्धा
होती है उसको मैं उसी प्रकार दीखाई देता हूँ |....शेष
अगले ब्लॉग में .
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!