※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 31 मई 2013

ध्यानावस्था में प्रभु से वार्तालाप -१३-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण,सप्तमी, शुक्रवार, वि० स० २०७०

 

  गत ब्लॉग से आगे...साधक-आपके प्रत्यक्ष प्रगट होने पर भी दर्शकों में श्रद्धा की कमी क्यों रह जाती है ? उदाहरण देकर समझाइये |

भगवान-मैं श्रद्धा की कमी और अभाव होते हुए भी सबके सामने प्रगट हो सकता हूँ और प्रगट होने पर भी श्रद्धा की कमी-वेशी रह सकती है; दुर्योधन की सभा में विराटस्वरूप में प्रगट हुआ और अपनी अपनी भावनाओं के अनुसार दीख पड़ा और बहुत लोग मुझे देख भी नहीं सके |

साधक-जब आप प्रत्यक्ष अवतार लेते है तब तो सबको समान भाव से दीखते होंगे |

भगवान-अवतार के समय भी जिसको भावना जैसी रहती है उसी प्रकार उसको दीखता हूँ |*

*जिन्ह के रही भावना जैसी | प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी ||

साधक-बहुत-से लोग कहते है की सच्चिदानन्दघन परमात्मा साकाररूप से भक्त के सामने प्रगट नहीं हो सकते | लोगो को अपनी भावना ही अपने-अपने इष्टदेव के साकार रूप में दीखने लग जाती है |

भगवान-वे सब भूल में कहते है | वे मेरे सगुणस्वरूप के रहस्य को नहीं जानते | मैं स्वयं सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही अपनी योगशक्ति से दिव्य सगुण साकार रूप में भक्तों के लिए प्रगट होता हूँ | हाँ, साधानकाल में किसी-किसी को भावना से ही मेरे दर्शनों की प्रतीति भी हो जाती है, किन्तु वास्तव में वे मेरे दर्शन नहीं समझे जाते |

साधक-साधक कैसे समझे की दर्शन प्रयत्क्ष हुए या मन की भावना ही है|

भगवान-प्रत्यक्ष और भावना में तो रात-दिन का अन्तर है | जब मेरा प्रत्यक्ष दर्शन होता है तो उसमे भक्तों के सब लक्षण घटने लग जाते है और उस समय की सारी घटनाएं भी प्रमाणित होती है, जैसे ध्रुव को मेरे प्रयत्क्ष दर्शन हुए और शन्ख छुआने से बिना पढ़े ही उसे सब शास्त्रों का ज्ञान हो गया | प्रह्लाद के लिए भी प्रयत्क्ष प्रगट हुआ और हिरण्यकशिपु का नाश कर डाला | ऐसी घटनाएं भावमात्र नहीं समझी जा सकती | किन्तु जो भावना से मेरे स्वरूप की प्रतीति होती है उसकी घटनाएं इस प्रकार प्रमाणित नहीं होती |

साधक-कितने ही कहते है की भगवान तो सर्वव्यापी है फिर वे एक देश में कैसे प्रगट हो सकते है ? ऐसा होने पर क्या आपके सर्वव्यापीपन में दोष नहीं आता ?

भगवान-नहीं, जैसे अग्नि सर्वयापी है | कोई अग्नि के इच्छुक अग्नि को साधन के द्वारा किसी एक देश में या एक साथ अनेकों देश में प्रज्वलित करते है तो वे अग्निदेव सब देशों में मौजूद रहते हुए भी अपन सर्वशक्ति को लेकर एक देश में या अनेको देश में प्रगट होते है | और मैं तो अग्नि से भी बढकर व्याप्त और अपरिमित शक्तिशाली हूँ, फिर मुझ सर्वव्यापी के लिए सब जगह स्थित रहते हुए ही एक साथ एक या अनेक जगह सर्वशक्ति से प्रगट होने में क्या आश्चर्य है |....शेष अगले ब्लॉग में .    

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!