※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

सोमवार, 3 जून 2013

ध्यानावस्था में प्रभु से वार्तालाप -१६-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

ज्येष्ठ कृष्ण, दशमी, सोमवार, वि० स० २०७०

 

  गत ब्लॉग से आगे...साधक-आपको भी आवश्यकता ?

भगवान-हाँ, संसार के जीवों के कल्याण के लिए, जो धर्म और भक्ति के प्रचार करने की आवश्यकता है वही मेरी आवश्यकता है |  

साधक-उस समय आप उसको कितना अधिकार देते है ?

भगवान-जितना मुझको उससे कार्य लेना होता है |

साधक-यह अधिकार क्या आप सभी भक्तों को दे सकते है ? या किसी-किसी को ?

भगवान-उदासीन को छोड़कर जो प्रसन्नता के साथ लेना चाहता है उन सभी को यह अधिकार दे सकता हूँ |

साधक-धर्म, सदाचार और भक्ति के प्रचारार्थ पूर्ण अधिकार देने के योग्य आप किसको समझते है ? कैसे स्वभाव वाले भक्त को आप पूरा अधिकार दे सकते है ?

भगवान-जिसका दूसरो के हित के लिए अनायास ही सर्वस्व त्याग करने का स्वभाव है, जिसमे सब कल्याण हो, ऐसी स्वाभाविक वृति सदा से चली आ रही है और जो दूसरों की प्रसन्नता पर सदा प्रसन्न रहता है, ऐसे उदार स्वभाववाले परम दयालु प्रेमी भक्तों को मैं अपना पूर्ण अधिकार दे सकता हूँ |

साधक-क्या आपकी प्राप्ति के बाद भी सबके स्वभाव एक-से नहीं होते ?

भगवान-नहीं, क्योकि साधनकाल में जिसका जैसा स्वभाव होता है प्राय: वैसा ही सिद्धावस्था में भी होता है | किन्तु हर्ष, शोक, राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि विकारों का अत्यंताभाव सभी में हो जाता है | एवं समता, शांति और परमानन्द की प्राप्ति भी सबको सामान भाव से ही होती है | तथा शास्त्रज्ञा के प्रतिकूल कर्म तो किसी के भी नहीं होते | किन्तु सारे कर्म (शास्त्रनूकुल क्रियाएँ) मेरी आज्ञा के अनुसार होते हुए भी भिन्न-भिन्न होते है |

साधक-फिर उनकी बाहरी क्रियाओं का अन्तर होने में की हेतु है ?

भगवान-किसी का एकान्त में बैठकर साधन करने का स्वभाव होता है किसी का सेवा करने का | स्वभाव,प्रारब्ध और बुद्धि भिन्न-भिन्न होने के कारण तथा देश-काल और परिस्तिथि केकारण भी बाहर की क्रियाए भिन्न-भिन्न होती है |

साधक-ऐसी अवस्था में सबसे उत्तम तो वही है जिसको आप पूरा अधिकार दे सकते हों |

भगवान-इसमें उत्तम-मध्यम कोई नहीं है | सभी उत्तम है | जिसके स्वभाव में स्वाभाविक ही काम करने का उत्साह विशेष होता है उसके ऊपर काम का भार विशेष दिया जाता है |....शेष अगले ब्लॉग में .    

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत  

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!