|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ कृष्ण, दशमी, सोमवार, वि० स० २०७०
गत
ब्लॉग से आगे...साधक-आपको भी आवश्यकता
?
भगवान-हाँ, संसार के जीवों के कल्याण के लिए, जो धर्म और
भक्ति के प्रचार करने की आवश्यकता है वही मेरी आवश्यकता है |
साधक-उस समय आप उसको कितना अधिकार देते है ?
भगवान-जितना मुझको उससे कार्य लेना होता है |
साधक-यह अधिकार क्या आप सभी भक्तों को दे सकते है ? या
किसी-किसी को ?
भगवान-उदासीन को छोड़कर जो प्रसन्नता के साथ लेना चाहता है
उन सभी को यह अधिकार दे सकता हूँ |
साधक-धर्म, सदाचार और भक्ति के प्रचारार्थ पूर्ण अधिकार
देने के योग्य आप किसको समझते है ? कैसे स्वभाव वाले भक्त को आप पूरा अधिकार दे
सकते है ?
भगवान-जिसका दूसरो के हित के लिए अनायास ही सर्वस्व त्याग
करने का स्वभाव है, जिसमे सब कल्याण हो, ऐसी स्वाभाविक वृति सदा से चली आ रही है
और जो दूसरों की प्रसन्नता पर सदा प्रसन्न रहता है, ऐसे उदार स्वभाववाले परम दयालु
प्रेमी भक्तों को मैं अपना पूर्ण अधिकार दे सकता हूँ |
साधक-क्या आपकी प्राप्ति के बाद भी सबके स्वभाव एक-से नहीं
होते ?
भगवान-नहीं, क्योकि साधनकाल में जिसका जैसा स्वभाव होता है
प्राय: वैसा ही सिद्धावस्था में भी होता है | किन्तु हर्ष, शोक, राग, द्वेष, काम,
क्रोध आदि विकारों का अत्यंताभाव सभी में हो जाता है | एवं समता, शांति और
परमानन्द की प्राप्ति भी सबको सामान भाव से ही होती है | तथा शास्त्रज्ञा के
प्रतिकूल कर्म तो किसी के भी नहीं होते | किन्तु सारे कर्म (शास्त्रनूकुल
क्रियाएँ) मेरी आज्ञा के अनुसार होते हुए भी भिन्न-भिन्न होते है |
साधक-फिर उनकी बाहरी क्रियाओं का अन्तर होने में की हेतु है
?
भगवान-किसी का एकान्त में बैठकर साधन करने का स्वभाव होता
है किसी का सेवा करने का | स्वभाव,प्रारब्ध और बुद्धि भिन्न-भिन्न होने के कारण
तथा देश-काल और परिस्तिथि केकारण भी बाहर की क्रियाए भिन्न-भिन्न होती है |
साधक-ऐसी अवस्था में सबसे उत्तम तो वही है जिसको आप पूरा
अधिकार दे सकते हों |
भगवान-इसमें उत्तम-मध्यम कोई नहीं है | सभी उत्तम है |
जिसके स्वभाव में स्वाभाविक ही काम करने का उत्साह विशेष होता है उसके ऊपर काम का
भार विशेष दिया जाता है |....शेष अगले ब्लॉग में
.
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!