|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ कृष्ण, एकादशी, मंगलवार,
वि० स० २०७०
गत
ब्लॉग से आगे...साधक-आपके
बतलाये हुए काम में तो सबको उत्साह होना चाहिये |
भगवान-मेरे बतलाये हुए काम में उत्साह तो सभी को होता है
कितु मैं उनके स्वभाव के अनुसार ही काम का भार देता हूँ, किसी का स्वभाव मेरे पास
रहने का होता है तो मैं उसको बाहर नहीं भेजता | जिसका लोकसेवा करने का स्वभाव होता
है उसके जिम्मे लोकसेवा का काम लगाता हूँ | जिसमे विशेष उपरामता देखता हूँ उसके
जिम्मे काम नहीं लगाता | जिसका जैसा स्वभाव और जैसी योग्यता देखता हूँ उसके अनुसार
ही उसके जिम्मे काम लगाता हूँ |
साधक-किन्तु भक्त को तो ऐसा ही स्वभाव बनाना चाहिये जिससे
आप निसंकोच होकर उसके जिम्मे विशेष काम लगा सके | अत: इस प्रकार का स्वभाव बनाने
के लिए सबसे बधकर उपाय क्या है ?
भगवान-केवल एकमात्र मेरी अनन्य शरण ही |
साधक-अनन्य शरण किसे कहते है, कृपया बतलाइये ?
भगवान-गुण और प्रभाव के सहित मेरे नाम और रूप का अनन्य भाव
से निरन्तर चिन्तन करना, मेरा चिन्तन रखते हुए ही केवल मेरे प्रीत्यर्थ मेरी आज्ञा
का पालन करना तथा मेरे किये हुए विधान में हर समय प्रसन्न रहना |
साधक-प्रभो ! आपका ध्यान (चिन्तन) करना मुझे भी अच्छा मालूम
पडता है | किन्तु मन स्थिर नहीं होता | जल्दी से इधर-उधर भाग जाता है | इसका क्या
कारण है ?
भगवान-आसक्ति के कारण मन को संसार के विषय-भोग प्रिय लगते
है तथा अनेक जन्मों के जो संस्कार इक्कठे हो रहे है वह मन को स्थिर नहीं होने देते
|
साधक-जिनसे न तो मेरे किसी प्रयोजन की सिद्धि होती है और न
जिनमे मेरी आसक्ति ही है ऐसे व्यर्थ पदार्थों का चिन्तन क्यों होता है ?
भगवान-मन स्वाभाविक ही चंच्चल है इसलिए उसे व्यर्थ पदार्थों
के चिन्तन की आदत पड़ी हुई है और उसे उनका चिन्तन रुचिकर भी है, यह भी एक प्रकार की
आसक्ति ही है, इसलिए वह उनका चिन्तन करता है |
साधक-इसके लिए क्या उपाय करना चाहिये ?
भगवान-मन की संभाल रखनी चाहिये की वह मेरे रूप का ध्यान
छोड़कर दुसरे किसी भी पदार्थों का चिन्तन न करने पावे | इसपर भी यदि दुसरे पदार्थों
का चिन्तन करने लगे तो तुरंत इसे समझाकर या बलपूर्वक वहाँ से हटाकर मेरे ध्यान में
पुन:-पुन; तत्परता से चेष्टा करनी चाहिये |....शेष अगले ब्लॉग में .
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण
!!! नारायण !!! नारायण !!!