|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ कृष्ण, द्वादशी, बुधवार,
वि० स० २०७०
गत
ब्लॉग से आगे...साधक-मन को
दुसरे पदार्थों से कैसे हटाया जाये?
भगवान-जैसे कोई बच्चा हाथ में चाकू या कैची लेता है तो माता
उसको समझाकर छुड़ा लेती है | यदि मूर्खता के कारण बच्चा नहीं छोड़ना चाहता तो माता
उसके रोने की परवाह न रखकर बलात छुड़ा लेती है | वैसी ही इस मन को समझाकर दुसरे
पदार्थों का चिन्तन छुड़ाना चाहिये क्योकि यह मन भी बालक की भाँती चन्चल है |
साधक-यह तो मालूम ही नहीं पडता की मन धोखा देकर कब कहाँ औउर
कब किस चीज को चुचाप जाकर पकड़ लेता है; इसके लिए क्या किया जाए ?
भगवान-जैसे माता बच्चे का बराबर ध्यान रखती है वैसे ही मन
की निगरानी रखनी चाहिये |
साधक-मन बहुत ही चन्च, बलवान और उदण्ड है, इसलिए इसका रोकना
बहुत ही कठिन प्रतीत होता है ?
भगवान-कठिन तो है, पर जितना तुम मानते हो उतना नहीं है,
क्योकि यह प्रयत्न करने से रूक सकता है | अतएव इसको कठिन मानकर निराश नहीं होना
चाहिये | माता बच्चे की रक्षा करने में कभी कठिनता नहीं समझती, यदि समझे तो उसका
पालन ही कैसे हो |
साधक-क्या मन सर्वथा बच्चे के ही समान है ?
भगवान-नहीं, बच्चे से भी बलवान और उदण्ड अधिक है |
साधक-तो फिर इसको निग्रह कैसे किया जाए?
भगवान-निग्रह तो किया जा सकता है क्योकि मन से बुद्धि बलवान
है और बुद्धि से भी तू अत्यन्त बलवान है | इसलिए जैसे माता अपनी समझदार लड़की के
द्वारा अपने छोटे बच्चे को समझाकर या लोभ देकर यदि वह नहीं मानता तो भय धिखलाकर भी
अनिष्ट से बचाकर इष्ट में लगा देती है वैसे ही मन को बुद्धि के द्वारा भोगों में
भय दिखाकर उसे इन नाशवान और क्षणभंगुर संसारिक पदार्थों से हटाकर पुन:-पुन: मुझमे
लगाना चाहिये |
साधक-इस प्रकार चेष्टा करने पर भी मैं अपनी विजय नहीं देख
रहा हूँ |
भगवान-यदि विजय न हो तो भी डटे रहों, घबडाओ मत | जब मेरी
मदद है तो निराश होने का कोई कारण ही नहीं है | विश्वाश रखों की लड़ते लड़ते आखिर में तुम्हारी विजय
निश्चित है |....शेष अगले ब्लॉग में .
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!