|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
ज्येष्ठ कृष्ण, चतुर्दशी, शुक्रवार,
वि० स० २०७०
गत
ब्लॉग से आगे...साधक-इन सबको
कैसे जाना जाय?
भगवान-जैसे छोटा
बच्चा आरम्भ में विद्या पढने से जी चुराता है किन्तु जब विद्या पढ़ते-पढ़ते उसके
गुण, प्रभाव, तत्व और रहस्य को जान लेता है तो फिर बड़े प्रेम और उत्साह के साथ
विद्याभ्यास करने लगता है तथा दूसरों के छुड़ाने पर भी नहीं छोड़न चाहता, वैसे ही
सत्संग के द्वारा मेरे भजन, ध्यान आदि का साधन करते-करते मनुष्य मेरे गुण, प्रभाव,
रहस्य को जान सकता है फिर ऐसा आनन्द और शान्ति मिलती है की वह छुड़ाने पर भी नहीं
छोड़ सकता |
साधक-प्रभो ! क्या आपका निरन्तर चिन्तन रखते हुए आपकी आज्ञा
के अनुसार शरीर और इन्द्रिय के द्वारा व्यापार भी हो सकता है ?
भगवान-दृढ अभ्यास से हो सकता है | जैसे कछुआ का अपना अण्डों
में, गौओं का अपने छोटे बच्चों में, कामी का स्त्री में, लोभी का धन में,
मोटर-ड्राईवर का सड़क में, नटनी का अपने पैरों में ध्यान रहते हुए उनके शरीर और
इन्द्रियों के द्वारा सब चेष्टाये भी होती है इसी प्रकार मेरा निरंतर चिन्तन करते
हुए मेरी आज्ञा के अनुसार शरीर और इन्द्रियों के द्वारा सब काम हो सकते है |
साधक-आपकी आज्ञा क्या है ?
भगवान-सत-शास्त्र, महापुरुष के वचन, हंदय की सात्विक
स्फुरणाए-ये तीनो मेरी आज्ञाये है | इन् तीनो में मतभेद प्रतीत होने पर जहाँ दोकी
एकता हो उसी को मेरी आज्ञा समझकर काम में
लाना चाहिये |
साधक-जहाँ तीनों का भिन्न-भिन्न मत प्रतीत हो वहाँ क्या
किया जाय ?
भगवान-वहाँ महापुरुषों की आज्ञा का पालन करना चाहिये |
साधक-क्या इससे शास्त्रों की अवहेलना नहीं होगी ?
भगवान-नहीं, क्योकि महापुरुष शास्त्रों के विपरीत नहीं कह
सकते | सर्वसाधारण के लिए शास्त्रों का निर्णय करना कठिन है तथा इसका यथार्थ
तात्पर्य देश और काल के अनुसार महात्मा लोग ही जान सकते है | इसलिए महापुरुष जो
मार्ग बतलावे वही ठीक है |....शेष अगले ब्लॉग
में.
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर, उत्तरप्रदेश , भारत
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!