※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शनिवार, 10 अगस्त 2013

संत-महिमा-१६-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण शुक्ल, चतुर्थी, शनिवार, वि० स० २०७०

संत की दया

 

गत ब्लॉग से आगे… प्रश्न: अज्ञानियों की देह में जैसा प्रेम रहता है क्या संतों का सारे चराचर में वैसा प्रेम हो जाता है ? या संतो का जैसे देह में प्रेम नहीं, वैसे क्या चराचर भूतों में उनका प्रेम हट जाता है ? उनकी समता का क्या स्वरुप है ?

उत्तर : उनकी समता वस्तुत इतनी विलक्षण है की उदाहरण के द्वारा समझायी नहीं जा सकती; क्योकि अज्ञानी की देह में जैसा अहंकार रहता है, संत का संसार में वैसा अहंकार नहीं रहता | इसलिए यह कहना नहीं बनता की संत का अज्ञानियों की देह के भाँती सबमे प्रेम हो जाता है, और सबमे प्रेम का अभाव इसलिए नहीं बतलाया जा सकता की अज्ञानी लोग अपने देह के स्वार्थ के लिए जहाँ दुसरे का अनहित कर डालते है, वहाँ ये संत पुरुष दुसरे के हित के लिए हँसते-हँसते अपने शरीर की बलि चढ़ा डालते है | परन्तु उनकी यह समता इतनी अदभुत है की दुसरे के हित के लिए शरीर का बलिदान करने पर भी उसमे कोई विषमता नहीं आ सकती | इसलिये किसी उदाहरण के द्वारा इस समता का स्वरुप समझना बहुत कठिन है | तथापि लोक और वेद में समझाने के लिए ऐसा ही कहा जाता है की जैसे आज्ञानी को सुख-दुःख की प्राप्ति में सारे शरीर में समता होती है, वैसे ही संतों को सब जीवों के सुख-दुःख की प्राप्ति में समता और अहंकार न होते हुए भी समता होती है | अर्थात जैसे अज्ञानी मनुष्य अपने सुख-दुःख से सुखी-दुखी होता है, संतजन ममता और अहंकार से रहित होने पर भी और अपने सुख-दुख से सुखी-दुखी से प्रतीत होते है | शेष अगले ब्लॉग में ...   


श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!