|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
श्रावण शुक्ल, तृतीया, शुक्रवार,
वि० स० २०७०
संत की दया
एक कुत्ता था | उसने गुड की हांडी में मुह डाल दिया | इतने में ही खडखड़ाहट की
आवाज हुई | कुते ने भागना चाहा | इसी गडबड में हांडी फूट गयी | हांडी की गर्दनी
कुते के गले में रह गयी | कुते को कष्ट पाते देख एक दयालु मनुष्य हाथ में लाठी
लेकर इसलिए कुते के पीछे दौड़ा की लाठी से हांडी की गर्दनी तोड़ की जाय तो कुत्ता
कष्ट से छूट जाय | कुत्ते ने अपने पीछे लाठी लिए दौड़ते हुए मनुष्य के असली उदेश्य
को न समझकर भागा और उसका कष्ट दूर नहीं हो सका |
इसी प्रकार महापुरुषों के तत्व को न समझकर उनकी क्रिया के भी विपरीत भावना कर
सब लोग लाभ नहीं उठा सकते |
संतों में समता
ऐसे महापुरुषों की दया ही नहीं, समता भी बड़ी
अदभुत होती है, उन्हें यदि समता की मूर्ती कहे तब भी अत्युक्ति नहीं | भगवान सम है
और उन संतों की भगवान स्थिति है | इसलिए वे स्वाभाविक ही समता को प्राप्त है |
जैसे सुख-दुःख की प्राप्ति होने पर अज्ञानी पुरुष की शरीर में समता रहती है वैसे
ही संतों की चराचर सब जीवों में समता रहती है | शेष अगले ब्लॉग में ...
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!