※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 8 अगस्त 2013

संत-महिमा-१४-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण शुक्ल, द्वितीया, गुरूवार, वि० स० २०७०

संत की दया

 गत ब्लॉग से आगे….यदि यह कहा जाए की श्रद्धा-प्रेम करने वालों का तो विशेष कल्याण होता है और दूसरों का सामान्यभाव से करते है, तो इसमें विषमता का दोष आता है | इसका उत्तर यह है की ऐसी बात नहीं है | श्रद्धा और प्रेम की कमी के कारण यदि लोग संतो की सब पर छायी हुई समान अपरिमित दया से लाभ नहीं उठा सकते तो इसमें उनका दोष नहीं है |

सूर्य बिना किसी पक्षपात या संकोच के सभी को समानभाव से प्रकाश देता है, परन्तु दर्पण में प्रतिबिम्ब पड़ता है और सूर्यकान्त शीशा सूर्य के प्रकाश को पाकर दूसरी वस्तु को जला दे सकता है | इसमें सूर्य का दोष या पक्षपात नही है |

इसी प्रकार जिनमे श्रद्धा, प्रेम नहीं है वे काष्ठ की भाँती कम लाभ उठाते है और श्रद्धा, प्रेमवाले सूर्यकान्त शीशे के भाँती लाभ उठाते है | सूर्य सबको स्वाभाविक ही प्रकाश देता है; परन्तु उल्लू के लिए वह अन्धकार रूप होता है | चन्द्रमाकी सर्वत्र बिखरी हुई चांदनी को चोर बुरा समझता है, इसमें चन्द्रमा का कोई दोष नहीं है, वे तो सबका उपकार ही करते है | इसीप्रकार महापुरुष तो सभी का उपकार ही करते है; किन्तु अत्यन्त दुष्ट और नीच प्रकृति वाले मनुष्य उल्लू की भांति अपनी बुद्धि हीनता के कारण उनसे द्वेष करते है और चोर की भांति उनकी निन्दा करते है इसमें संतों का क्या दोष है | शेष अगले ब्लॉग में ...   


श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!