|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
श्रावण शुक्ल, द्वितीया, गुरूवार,
वि० स० २०७०
संत की दया
सूर्य बिना किसी पक्षपात या संकोच के सभी को समानभाव से प्रकाश देता है,
परन्तु दर्पण में प्रतिबिम्ब पड़ता है और सूर्यकान्त शीशा सूर्य के प्रकाश को पाकर
दूसरी वस्तु को जला दे सकता है | इसमें सूर्य का दोष या पक्षपात नही है |
इसी प्रकार जिनमे श्रद्धा,
प्रेम नहीं है वे काष्ठ की भाँती कम लाभ उठाते है और श्रद्धा, प्रेमवाले
सूर्यकान्त शीशे के भाँती लाभ उठाते है | सूर्य सबको स्वाभाविक ही प्रकाश देता है;
परन्तु उल्लू के लिए वह अन्धकार रूप होता है | चन्द्रमाकी सर्वत्र बिखरी हुई
चांदनी को चोर बुरा समझता है, इसमें चन्द्रमा का कोई दोष नहीं है, वे तो सबका
उपकार ही करते है | इसीप्रकार महापुरुष तो सभी का उपकार ही करते है; किन्तु
अत्यन्त दुष्ट और नीच प्रकृति वाले मनुष्य उल्लू की भांति अपनी बुद्धि हीनता के
कारण उनसे द्वेष करते है और चोर की भांति उनकी निन्दा करते है इसमें संतों का क्या
दोष है | शेष अगले ब्लॉग में ...
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!