|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
श्रावण शुक्ल, पन्चमी, रविवार, वि० स० २०७०
संत की समता
गत ब्लॉग से आगे…ऐसी
स्थिति मनुष्य को प्रतिपक्ष भावना से प्राप्त होती है | अज्ञानी मनुष्य जैसे अपनी
देह में अहंभावना और दूसरों में परभावना करते है | इससे विपरीत दूसरों में
आत्मभावना और अपने शरीर में परकी-सी भावना करने का नाम प्रतिपक्ष (उलटी) भावना है
| (बहुत से) लोग संतों की समदृष्टि के रहस्य को न जानकार समदृष्टी सम्बन्धी
शास्त्रवाक्यों का दुरूपयोग करते है | गीता में भगवान ने कहा है ‘वे ज्ञानीजन
विद्या और विनययुक्त ब्राह्मण में तथा गौ, हाथी, कुते और चाण्डाल में भी समदर्शी
ही होते है |’ (गीता ५|१८) इसका उल्टा अर्थ करते हुए वे लोग कहते है की ‘खान-पान
आदि में समव्यवहार करना ही समदर्शन है |’ परन्तु ऐसा समव्यवहार न तो सम्भव है, न
आवश्यक है और भगवान के कथन का यह उद्देश्य ही है | क्योकि हाथी सवारी के योग्य है,
कुत्ता सवारी के योग्य नहीं है | गौ का दूध सेवन करने योग्य है, कुतिया और हथिनी
का नहीं | इन सबके खाध्य, व्यवहार, स्वरुप आकृति, जाति और गुण एक दुसरे से अत्यन्त
विलक्षण और भिन्न होने के कारण इन सबमे समान व्यवहार नहीं हो सकता, न करना ही
चाहिये और न करने के लिए कोई कह ही सकता है | जैसे अपने सुख-दुःख के साधन की
प्राप्ति और दुःख के साधन की निवृति के लिए प्रयत्न किया जाता है, वैसे ही सबमे एक
ही आत्मा समरूप से स्थीत है, इस बात का अनुभव करते हुए, सबके लिए उनका जिस प्रकार
से हित हो उसी प्रकार से यथायोग्य व्यवहार करना ही वास्तविक समता है | शेष अगले ब्लॉग में ...
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!