|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
श्रावण शुक्ल, षष्ठी, सोमवार, वि० स० २०७०
संत की समता
गत ब्लॉग से आगे…जैसे हम
अपने देह में हाथों से ग्रहण करने का, आँखों से देखने का, कानो से सुनने का, इस
प्रकार विभिन्न इन्द्रियों के द्वारा यथायोग्य विभिन्न व्यवहार करते है , परन्तु
आत्मीयता की दृष्टी में सबमे समता है | वैसे ही सबके साथ यथायोग्य व्यवहार करते
हुए आत्मीयता की दृष्टी से सबमे समता रहनी चाहिये | शास्त्रीय समता व्यवहार में
दूषित नहीं है, बल्कि परमार्थ में सहायक नहीं है | जिस विषमता से किसी का अहित हो,
वही वास्तविक विषमता है | स्त्रिओं के अवयव एकसे होनेपर भी माता, बहिन और पत्नी के
साथ सम्बन्ध के अनुसार ही यथायोग्य विभिन्न व्यवहार होते है और यह विषमता
शास्त्रीय और न्यायसंगत होने से सेवनीय है | इतना ही नहीं, परम पूजनीय माता में
पूज्यभाव होने पर भी रजस्वला या प्रसव की स्थिति में हम उसका स्पर्श नहीं करते,
करनेपर स्नान करने की विधि है | ऐसी विषमता वस्तुत: विषमता नहीं है | इसके मानने
में लाभ और न मानने में हानि है | घर में कुते को रोटी देते है, गाय को घास देते
है, बीमार को दवा दी जाती है परन्तु सभी को घास, दवा या रोटी समान नहीं दी जाती |
यह विषमता विषमता नहीं है | जैसे कोई भी अपने आत्मा का जान-बूझकर अहित नहीं करता,
उसे दुःख नहीं देता और अपना कल्याण चाहता है एवं सुख और कल्याण के लिए चेष्टा करता
है | इसी प्रकार किसी को दुःख न पहुँचाकर, अहित न चाहकर सबका कल्याण चाहना और सुख
पहुचाने की चेष्टा करना ही समता है | फिर व्यवहार में यथायोग्य कितनी ही विषमता
क्यों न हो, विषमता नहीं है | शेष अगले ब्लॉग में ...
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!