|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
श्रावण शुक्ल, सप्तमी, मंगलवार, वि०
स० २०७०
संत की समता
गत ब्लॉग से आगे…मान लीजिये, हमसे कोई मित्रता करता है और दूसरा कोई वैर करता
है | उन दोनों के न्याय का भार प्राप्त हो जाय तो हमे पक्षपातरहित होकर न्याय करना
चाहिये, बल्कि कही अपने मित्र को समझाकर उसकी सम्मति से शत्रुता रखनेवाले का कुछ
पक्ष भी कर ले तो वह भी समता है |
अनुकूल हितकर पदार्थ के प्राप्त होने पर सबके लिए समभाव से विभाग करना चाहिये,
परन्तु कहीं दूसरों को अधिक और श्रेष्ठ वस्तु दे दें और स्वयं कम लें, निकृष्ट ले
या बिलकुल ही न ले तो यह विषमता-विषमता नहीं है ! क्योकि इसमें किसी का अहित नही
है, बल्कि अपने स्वार्थ का त्याग है ! इसी प्रकार विपति और दुःख की प्राप्ति सबके
लिए न्याययुक्त समविभाग करते समय भी यदि कहीं दूसरों की बचाकर विपति या दुःख अपने
हिस्से ले लिया जाय तो यह विषमता भी विषमता नहीं है, बल्कि स्वार्थ का त्याग होने
के कारण इसमें उल्टा गौरव है | प्रभु में स्थित होने के कारण संत में प्रभु की समता का समावेश हो जाता
है | अतएव इस अनोखी समता का पूरा रहस्य तो प्रभु को प्राप्त करने पर ही मनुष्य समझ
सकता है |
मान-अपमान और
निन्दा-स्तुति में भी संत में समता रहती है, किन्तु यह आवश्यक नहीं की व्यवहार में
सब जगह समता का ही प्रदर्शन हो | ह्रदय में मान-अपमान की प्राप्ति में हर्ष, शोक
आदि विकार नहीं होते | शेष
अगले ब्लॉग में ...
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!