※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

बुधवार, 14 अगस्त 2013

संत-महिमा-२०-


|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
श्रावण शुक्ल, अष्टमी, बुधवार, वि० स० २०७०
 
संत की समता
 
गत ब्लॉग से आगे…
प्रश्न: साधारण मनुष्य की निन्दा और अपमान की प्राप्ति में जैसा दुःख होता है, क्या संतों को वैसा ही स्तुति या मान में होता है ? अथवा स्तुति या मान में लोगों को जैसे प्रसन्नता होती है, संतों को निन्दा या अपमान में क्या वैसी ही प्रसन्नता होती है ? इस दोनों में से संत की समता में हार्धिक भाव कैसा होता है ?
उत्तर: दोनों से ही विलक्षण होता है, अर्थात मान-अपमान और निन्दा-स्तुति में यथायोग्य न्याययुक्त व्यवहार-भेद होने पर भी उन्हें हर्ष शोक नहीं होते |
 
प्रश्न: तो क्या अपमान और निन्दा का प्रतिकार भी संत करते है ?
उत्तर: यदि अपमान या निन्दा करनेवाले का या अन्य किसी का हित हो तो प्रतिकार भी कर सकते है |
 
प्रश्न: क्या वे मान-बड़ाई प्रतिष्ठा की प्राप्ति को व्यवहार में स्वीकार कर लेते है या उनका विरोध ही करते है |
उत्तर :देश, काल और परिस्थिती को देखकर शास्त्रानुकूल दोनों ही बाते कर सकते है | विरोध करने में किसी का हित होता है तो विरोध करते है और स्वीकार करने में किसी का हित होता है तो न्याय से प्राप्त होने पर स्वीकार भी कर लेते है | शेष अगले ब्लॉग में ...   
 
श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!