|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
श्रावण शुक्ल, नवमी, गुरूवार, वि०
स० २०७०
संत की समता
गत ब्लॉग से आगे…
प्रश्न: तब फिर व्यवहार में महापुरुष की पहचान कैसे हो ?
उत्तर: व्यवहार की क्रिया से महापुरुष को पहचानना बहुत कठिन है | इतना ही जान
सकते है की ये अच्छे पुरुष है | फिर चाहे वे सिद्ध हो या साधक ! दोनों को ही संत
मानने में कोई आपति नहीं, क्योकि साधक भी तो सिद्ध संत बनने वाला है | वस्तुत:
जिसका व्यवहार सत् है वही संत है |
प्रश्न: साधारण मनुष्यों को जैसे लाभ और जय में प्रीती-प्रसन्नता होती है, तो
क्या संत को इसके विपरीत हानि और पराजय में प्रसन्नता होती है ? अथवा साधारण
मनुष्यों को जैसे हानि-प्राप्ति में द्वेष, घ्रणा, भय,शोक आदि होते है |
उत्तर: नहीं, उसकी समता इन सबसे विलक्षण है; क्योकि वे हर्ष-शोक, राग-द्वेष
आदि समस्त विकारों से सर्वथा रहित होते है |
प्रश्न: ऐसी अवस्था में क्या हानि-पराजय होने पर साधारण मनुष्य की भाँती संत
का व्यवहार ईर्ष्या और भयका-सा भी हो सकता है |
उत्तर: यदि संसार का हित हो या न्याययुक्त मर्यादा की रक्षा हो तो हो भी सकता
है;परन्तु उनके मन में किसी प्रकार का भी विकार नहीं होता|
प्रश्न: जो कुछ भी बाहरी क्रिया होती है वह पहले मन में आती है | बिना मन में आये बाहरी क्रिया कैसे सम्भव है ?
उत्तर: नाटक के पात्रों में जैसे सभी प्रकार के बाहरी व्यवहार होते है; परन्तु
उनके मन में अभिनय बुद्धि के अतिरिक्त कोई वास्तविकता नहीं होती, इसी प्रकार संतों
के द्वारा नाटकवत बाहरी व्यवहार होने पर भी उनके मन में वस्तुत: कोई विकार नहीं
होता |
इसी प्रकार शीतोष्ण,
सुख-दुःख आदि प्रिय-अप्रिय सभी पदार्थों के सम्बन्ध में उनका समभाव रहता है | सबमे
एक अखण्ड नित्य भगवत्स्वरूप समता सदा-सर्वदा बनी रहती है | शेष अगले ब्लॉग में ...
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!