※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 15 अगस्त 2013

संत-महिमा-२१-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण शुक्ल, नवमी, गुरूवार, वि० स० २०७०

संत की समता

 

गत ब्लॉग से आगे…
प्रश्न: तब फिर व्यवहार में महापुरुष की पहचान कैसे हो ?

उत्तर: व्यवहार की क्रिया से महापुरुष को पहचानना बहुत कठिन है | इतना ही जान सकते है की ये अच्छे पुरुष है | फिर चाहे वे सिद्ध हो या साधक ! दोनों को ही संत मानने में कोई आपति नहीं, क्योकि साधक भी तो सिद्ध संत बनने वाला है | वस्तुत: जिसका व्यवहार सत् है वही संत है |  

 

प्रश्न: साधारण मनुष्यों को जैसे लाभ और जय में प्रीती-प्रसन्नता होती है, तो क्या संत को इसके विपरीत हानि और पराजय में प्रसन्नता होती है ? अथवा साधारण मनुष्यों को जैसे हानि-प्राप्ति में द्वेष, घ्रणा, भय,शोक आदि होते है |

उत्तर: नहीं, उसकी समता इन सबसे विलक्षण है; क्योकि वे हर्ष-शोक, राग-द्वेष आदि समस्त विकारों से सर्वथा रहित होते है |

 

प्रश्न: ऐसी अवस्था में क्या हानि-पराजय होने पर साधारण मनुष्य की भाँती संत का व्यवहार ईर्ष्या और भयका-सा भी हो सकता है |

उत्तर: यदि संसार का हित हो या न्याययुक्त मर्यादा की रक्षा हो तो हो भी सकता है;परन्तु उनके मन में किसी प्रकार का भी विकार नहीं होता|

 

प्रश्न: जो कुछ भी बाहरी क्रिया होती है वह पहले मन में आती है |  बिना मन में आये बाहरी क्रिया कैसे सम्भव है ?

उत्तर: नाटक के पात्रों में जैसे सभी प्रकार के बाहरी व्यवहार होते है; परन्तु उनके मन में अभिनय बुद्धि के अतिरिक्त कोई वास्तविकता नहीं होती, इसी प्रकार संतों के द्वारा नाटकवत बाहरी व्यवहार होने पर भी उनके मन में वस्तुत: कोई विकार नहीं होता |

इसी प्रकार शीतोष्ण, सुख-दुःख आदि प्रिय-अप्रिय सभी पदार्थों के सम्बन्ध में उनका समभाव रहता है | सबमे एक अखण्ड नित्य भगवत्स्वरूप समता सदा-सर्वदा बनी रहती है | शेष अगले ब्लॉग में ...   

 
श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!