※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

शुक्रवार, 16 अगस्त 2013

संत-महिमा-२२-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

श्रावण शुक्ल, दशमी, शुक्रवार, वि० स० २०७०

 
संत में विशुद्ध विश्वप्रेम

 

गत ब्लॉग से आगे…संतमें केवल समता ही नहीं, समस्त विश्व में हेतु और अहंकाररहित अलौकिक विशुद्ध प्रेम भी होता है | जैसे भगवान वासुदेव का सबमे अहेतुक प्रेम है, वैसे ही भगवान वासुदेव की प्राप्ति होने पर संतका भी समस्त चराचर जगत में अहेतुक  प्रेम हो जाता है; क्योकि साधन अवस्था में वह सबको वासुदेवस्वरूप ही समझकर अभ्यास करता है | अतएव सिद्धावस्था में तो उसके लिए यह बात स्वभावसिद्ध होनी ही चाहिये | 

प्रश्न: ऐसा अहैतुक प्रेम भक्ति के साधन से होता है या ज्ञान के साधन से?

उत्तर: दोनों में से किसी एक के साधन से हो सकता है, वह सब भूतों को ईश्वर समझकर अपने देह और प्राणों से बढ़कर उनमे प्रेम करता है; और जो ज्ञान का साधन करता है, वह सम्पूर्ण भूतों को अपना आत्मा समझकर उनसे देह,प्राण और आत्मा के समान प्रेम करता है |

 
प्रश्न: जैसे एक अज्ञानी मनुष्य का अपने शरीर, घर, स्त्री, पुत्र, धन, जमीन आदि में प्रेम होता है, क्या संत पुरुष का सारे विश्व में वैसा ही प्रेम होता है ?

उत्तर: नही, इससे अत्यन्त विलक्षण होता है | अज्ञानी मनुष्य तो शरीर, घर, स्त्री, पुत्र आदि के लिए नीति, धर्म, न्याय, ईश्वर और परोपकारता का त्याग कर देता है तथा अपने देह, प्राण की रक्षा के लिए स्त्री, पुत्र, धन आदि का भी त्याग कर देता है; परन्तु संत तो नीति, धर्म, न्याय, ईश्वर और विश्व के लिए केवल स्त्री, पुत्र, धन का ही नहीं, अपने शरीर का भी त्याग कर देते है | वे विश्व की रक्षा के लिए पृथ्वी का, पृथ्वी की रक्षा के लिए द्वीप का, द्वीप की रक्षा के लिए ग्राम का, ग्राम के लिए कुटुम्ब का का, कुटुम्ब और उपर्युक्त सबके हित के लिए अपने प्राणों का आनन्दपूर्वक त्याग कर देते है ! फिर धर्म, ईश्वर और समस्त विश्व के लिए त्याग करना तो उनके लिए कौन बड़ी बात है |

जैसे अज्ञानी मनुष्य अपने आत्मा के लिए सबका त्याग कर देता है, वैसे ही संत पुरुष धर्म, ईश्वर और विश्व के लिए सब कुछ त्याग कर देते है; क्योकि धर्म, ईश्वर और विश्व ही उनका आत्मा है; परन्तु अज्ञानी का जैसे देह में अहंकार और स्त्री पुत्रादि कुटुम्ब में ममत्व होता है, वैसा संत का अहंकार और ममत्व कहीं नहीं होता | उनका सबमे हेतुरहित विसुद्ध और अत्यन्त अलौकिक अपरिमित प्रेम होता है | शेष अगले ब्लॉग में ...     

श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!