|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
श्रावण शुक्ल, एकादशी, शनिवार, वि० स० २०७०
संत में विशुद्ध विश्वप्रेम
गत ब्लॉग से आगे…
प्रश्न: भक्तिमार्ग पर चलने वाले भक्त का सम्पूर्ण चराचर में प्राणों से बढ़कर
अत्यन्त विलक्षण प्रेम क्यों और कैसे हो जाता है ?
उत्तर : इसलिए होता है की वे सारे विश्व को अपने इष्टदेव का साक्षात् स्वरुप
समझते है |
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत |
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामी भगवंत ||
वे भक्त समस्त विश्व के लिए अपने तन, मन, धन को न्योछावर किये रहते है | अपनी
चीजे स्वामी के काम में आती देखकर वे इस भाव से बड़े आनन्दित होते है की स्वामी ने
कृपापूर्वक हमको और हमारी वस्तुओं को अपना लिया | भक्त अपना यह ध्येय समझता है की
हमारी चीजे भगवान् की ही है, इसलिए उन्ही की सेवा में लगनी चाहिये; परन्तु जब तक
भगवान् उनको काम में नहीं लाते, तबतक भगवान् ने उनको स्वीकार नहीं किया, तब तक वह
अपने ध्येय की सिद्धि समझकर परम प्रसन्न होता है | विश्वरूप भगवान् की प्रसन्नता
में ही उसकी प्रसन्नता है | इसलिए वह अपने प्राणों से बढ़कर समस्त चराचर विश्व में
प्रेम करता है |
यदि यह कहा जाय की फिर उसका प्रेम हेतुरहित और विशुद्ध कैसे माना जा सकता है,
जब की वह अपने इष्ट को संतुष्ट और प्रसन्न करने के हेतु से प्रेम करता है ? तो
इसका उतर यह है की यह हेतु वस्तुत: हेतु नहीं है यह पवित्र भाव है | यही मनुष्य का
परम लक्ष्य होना चाहिये |
जो प्रेम अपने व्यक्तिगत
स्वार्थ को लेकर होता है, वाही कलंकित और दूषित है; परन्तु जब दुसरे के हित के लिए
किया जाने वाला प्रेम भी पवित्र माना जाता है, तब दुसरे सबको साक्षात् भगवान का
स्वरूप समझकर ही उनसे प्रेम करना तो पवित्र प्रेम है | शेष अगले ब्लॉग में ...
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!