|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
श्रावण शुक्ल, पूर्णिमा, बुधवार,
वि० स० २०७०
संत में विशुद्ध विश्वप्रेम
गत ब्लॉग से आगे…
प्रश्न : ज्ञान के मार्ग में चलनेवाले का देह, प्राण और आत्मा के समान प्रेम
क्यों और कैसे हो जाता है ?
उत्तर : ज्ञान के मार्ग में चलने वाला सबके आत्मा को आपना आत्मा ही समझता है |
‘सर्वव्यापी अनन्त चेतन में एकीभाव से स्थितिरूप योग से युक्त हुए आत्मावाला तथा
सबमे समभाव से देखने वाला योगी आत्मा को सम्पूर्ण भूतों में बर्फ में जल के सद्र्श
व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतों को आत्मा में देखता है |’ (गीता ६|२९)
जब सबको वह आत्मा ही समझता है तब सारे विश्व में आत्मा के सद्रश उसका प्रेम
होना युक्तियुक्त ही है | इसलिए जैसे देह को आत्मा मानने वाला अज्ञानी अपने ही हित
में रत रहते है और ऐसे सर्वभूत हित में रत ज्ञानमार्गी साधक ही निर्गुण परमात्मा
को प्राप्त होते है |
भगवान् ने कहा है ‘जो पुरुष इन्द्रियों के समुदाय को भली प्रकार वश में करके
मन-बुद्धि से परे सर्वव्यापी, अकथनीय स्वरूप और सदा एकरस रहने वाले, नित्य, अचल,
निराकार, अविनाशी सच्चिदानंदघन ब्रह्म को निरन्तर एकीभाव से ध्यान करते हुए भजते
है, वे सम्पूर्ण भूतों के हित में रत और सबमे समान भाववाले योगी मुझको ही
प्राप्त होते है |’ (गीता १२| ३-४)
परन्तु जैसे अज्ञानी
मनुष्य का देह में अहंकार, अभिमान, ममता और आसक्ति होती है, वैसे संत का विश्व में
अहंकार, अभिमान, ममता और आसक्ति नहीं होती | उसका विश्वप्रेम विशुद्ध ज्ञानपूर्ण
होता है | अहंकार, अभिमान, ममता, आसक्ति आदि दोषों को लेकर अथवा व्यक्तिगत स्वार्थवश
जो प्रेम होता है, वही दूषित प्रेम समझा जाता है | क्षणभंगुर, नाशवान द्रश्य
पदार्थों को सत्य मानकर उनके सम्बन्ध से होने वाले भ्रमजन्य सुख को सुख मानकर उमे
प्रेम करना अज्ञानपूर्ण प्रेम है | ये दोनों बाते संतों में नहीं होती इसलिए उस ज्ञानी संत का प्रेम विशुद्ध और
ज्ञानपूर्ण होता है | शेष
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—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!