|| श्रीहरिः ||
आज की शुभतिथि-पंचांग
भाद्रपद कृष्ण, प्रतिपदा, गुरूवार,
वि० स० २०७०
संत में विशुद्ध विश्वप्रेम
गत ब्लॉग से आगे…
प्रश्न : जैसे भक्त सम्पूर्ण विश्व को साक्षात् अपना इष्टदेव भगवान् समझकर काम
पड़ने पर विश्व-हित के लिए प्रसन्नता पूर्वक अपने सम्पूर्ण ऐश्वर्यसहित अपने-आपको
बलि-देवीपर चढ़ा देता है, क्या ज्ञानमार्ग पर चलने वाला भी अवसर आने पर ऐसा ही कर
सकता है ?
उत्तर : हाँ, कर सकता है; क्योकि प्रथम तो उसकी दृष्टीमें ऐश्वर्य और देह का
कोई मूल्य ही नहीं है | और दुसरे, अज्ञानी मनुष्य ऐश्वर्य और देह को आनन्ददायक
मानकर मूल्यवान समझते है | अतएव इनकी दृष्टी से उन्हें सुख पहुचाने के लिए ज्ञानी
पुरुष का ऐश्वर्य और देह का त्याग कर दे इसमें
आश्चर्य और शंका ही क्यों होनी चाहिये ?
ज्ञान मार्ग पर चलने वाला पुरुष समस्त चराचर विश्व को अपने चिन्मय आत्मरूप से
ही अनुभव करता है | अतएव उसका सबके साथ
आत्मवत व्यवहार होता है | जैसे किसी समय अपने ही दाँतों से जीभ के कट जाने पर कोई
भी मनुष्य दाँतों को दण्ड नहीं देता, वह जानता है दाँत और जीभ दोनो मेरे है | जीभ
में तो तकलीफ है ही, दाँतों में और तकलीफ क्यों उत्पन्न की जाय | इसीप्रकार
ज्ञानमार्गी संत सबकों अपना आत्मा समझने के कारण किसी के द्वारा अनिष्ट किये जाने
पर भी उसे दण्ड देने की भावना नहीं करते | कभी-कभी यदि ऐसी कोई बात देखि जाती है
तो उसका हेतु भी आत्मोपम प्रेम ही होता है | जैसे अपने दुसरे अंगों की रक्षा के
लिए मनुष्य समझ-बूझ कर सड़े हुए अन्गको कटवा देने में अपना हित समझता है, इसी
प्रकार संतों के द्वारा भी विश्वहितार्थ स्वाभाविक ही कभी-कभी ऐसी क्रिया होती
देखि जाती है |
संतों में उपर्युक्त
विश्वप्रेम का तत्व और रहस्य बड़ा ही विलक्षण है | वास्तव में जो संत होते है, वे
ही इसको जानते है | ऐसे संतों के गुण, आचरण, प्रभाव और तत्व का अनुभव उनका संग और
सेवन करने से ही हो सकता है | शेष अगले ब्लॉग में ...
—श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से,
गीताप्रेस गोरखपुर
नारायण ! नारायण !! नारायण !!!
नारायण !!! नारायण !!!