※हमको तो 60 वर्षों के जीवनमें ये चार बातें सबके सार रूप में मिली हैं - 1. भगवान् के नामका जप 2. स्वरुपका ध्यान 3. सत्संग(सत्पुरुषोंका संग और सत्त्-शास्त्रोंका मनन) 4. सेवा ※ जो ईश्वर की शरण हो जाता है उसे जो कुछ हो उसीमें सदा प्रसन्न रहना चाहिये ※ क्रिया, कंठ, वाणी और हृदयमें 'गीता' धारण करनी चाहिये ※ परमात्मा की प्राप्तिके लिए सबसे बढ़िया औषधि है परमात्माके नामका जप और स्वरुपका ध्यान। जल्दी-से-जल्दी कल्याण करना हो तो एक क्षण भी परमात्माका जप-ध्यान नहीं छोड़ना चहिये। निरंतर जप-ध्यान होनेमें सहायक है -विश्वास। और विश्वास होनेके लिए सुगम उपाय है-सत्संग या ईश्वरसे रोकर प्रार्थना। वह सामर्थ्यवान है सब कुछ कर सकता है।

गुरुवार, 22 अगस्त 2013

संत-महिमा-२५-


|| श्रीहरिः ||

आज की शुभतिथि-पंचांग

भाद्रपद कृष्ण, प्रतिपदा, गुरूवार, वि० स० २०७०


संत में विशुद्ध विश्वप्रेम

 

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प्रश्न : जैसे भक्त सम्पूर्ण विश्व को साक्षात् अपना इष्टदेव भगवान् समझकर काम पड़ने पर विश्व-हित के लिए प्रसन्नता पूर्वक अपने सम्पूर्ण ऐश्वर्यसहित अपने-आपको बलि-देवीपर चढ़ा देता है, क्या ज्ञानमार्ग पर चलने वाला भी अवसर आने पर ऐसा ही कर सकता है ?

उत्तर : हाँ, कर सकता है; क्योकि प्रथम तो उसकी दृष्टीमें ऐश्वर्य और देह का कोई मूल्य ही नहीं है | और दुसरे, अज्ञानी मनुष्य ऐश्वर्य और देह को आनन्ददायक मानकर मूल्यवान समझते है | अतएव इनकी दृष्टी से उन्हें सुख पहुचाने के लिए ज्ञानी पुरुष का ऐश्वर्य और देह का त्याग कर दे इसमें  आश्चर्य और शंका ही क्यों होनी चाहिये ?

ज्ञान मार्ग पर चलने वाला पुरुष समस्त चराचर विश्व को अपने चिन्मय आत्मरूप से ही अनुभव करता है  | अतएव उसका सबके साथ आत्मवत व्यवहार होता है | जैसे किसी समय अपने ही दाँतों से जीभ के कट जाने पर कोई भी मनुष्य दाँतों को दण्ड नहीं देता, वह जानता है दाँत और जीभ दोनो मेरे है | जीभ में तो तकलीफ है ही, दाँतों में और तकलीफ क्यों उत्पन्न की जाय | इसीप्रकार ज्ञानमार्गी संत सबकों अपना आत्मा समझने के कारण किसी के द्वारा अनिष्ट किये जाने पर भी उसे दण्ड देने की भावना नहीं करते | कभी-कभी यदि ऐसी कोई बात देखि जाती है तो उसका हेतु भी आत्मोपम प्रेम ही होता है | जैसे अपने दुसरे अंगों की रक्षा के लिए मनुष्य समझ-बूझ कर सड़े हुए अन्गको कटवा देने में अपना हित समझता है, इसी प्रकार संतों के द्वारा भी विश्वहितार्थ स्वाभाविक ही कभी-कभी ऐसी क्रिया होती देखि जाती है |

संतों में उपर्युक्त विश्वप्रेम का तत्व और रहस्य बड़ा ही विलक्षण है | वास्तव में जो संत होते है, वे ही इसको जानते है | ऐसे संतों के गुण, आचरण, प्रभाव और तत्व का अनुभव उनका संग और सेवन करने से ही हो सकता है | शेष अगले ब्लॉग में ...   


श्रद्धेयजयदयाल गोयन्दका सेठजी, तत्त्वचिंतामणि पुस्तक से, गीताप्रेस गोरखपुर

नारायण ! नारायण !! नारायण !!! नारायण !!! नारायण !!!